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द्वितीया प्रथम पत्नी की मृत्यु के उपरान्त पति का हृदय व्यथित था, फिर भी उन्हें दूसरा विवाह करना पड़ा। विवाहित पति और क्वांरी युवा बालिका के मानसिक घात-प्रतिघात का हृदय- ग्राही वर्णन इस कहानी में है। उस दिन को सिर्फ चार मास और कुछ दिन व्यतीत हुए थे, इसी बीच में चन्द्रनाथ फिर से हल्दी चढ़ा और कंगना बाधकर एक मुग्धा बालिका को ब्याह लाए। बालिका का नाम था आनन्दी। आयु चौदह वर्ष, रंग मोती के समान, कण्ठ- स्वर सितार की मूर्छना जैसा, चाल भीता-चकिताहरिणी जैसी, उगलिया चम्पे की कली के समान, उत्तप्त स्वर्ग की मानो सजीव प्रतिमा। परन्तु मुख ? मुख हमने देखा नही । एक बात देखी-पास-पडोस, मुहल्ले और कुटुम्ब की, सभी जाति, आयु और स्थिति की स्त्रिया झुण्ड को झुण्ड उस मुह को देखने गई, अपनी-अपनी हैसियत के अनुसार भेट चढ़ाई और बालिका का मुह देखा । वे नेत्रों में रहस्य का हल्का गुलाबी रग लिए लौट रही थी; वह रग भला किस वस्तु की छाया थी? उसी मुह की। चन्द्रनाथ ने भी सुयोग पाकर उसे देखा । उस देखने के मूल्य में उन्हें मुह-मांगे दाम अर्थात् 'हीरो का हार' देना पड़ा । स्तब्ध रात्रि मे, विमल चादनी में, चन्द्रनाथ ने वह उत्फुल्ल लज्जावान् मुख देखा। वे हंसे नही, बोले नहीं । कम्पित हाथों से घूघट हटाया, फिर चुपचाप वैसे ही ढक दिया और उठकर चले आए। उस दिन वे दिन-भर सोते रहे अथवा यों कहिए कि आंख बन्द किए पड़े रहे। क्यों? उन हीरों के मूल्य में देखने योग्य उस मुख को नेत्रो से हटाकर हृदय के गम्भीर प्रदेश मे, जहां ऐसी अमूल्य निधि सुरक्षित रखी जाती है, पहुचने की चेष्टा मे वे बहुत प्रयत्न करने पर भी विफल हो रहे थे। उस रूप की प्रभा, जो १८१