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१५८ वाण-वधू - न आते और सम्मुख युद्ध मे प्राण देते तो देखते कि तुम्हारी पत्नी किस आनन्द मे चिता पर चढ़ती है !" "पर प्रिये, समय के लिए बच रहना भी युक्ति है।' "कायर ही ऐसी युक्तिया दिया करते हैं, पर जो सच्चे शूर है वे जय या मृत्यु-इन दो वस्तुओ को ही प्राप्त करते है । शोक तो यह है कि मुझे कन्या जन्मी. पुत्र भगवान् ने न दिया।" "और जो पुत्र भी युद्ध से भागता ?" "सिहनी कभी स्यार नही पैदा करती।" "आह, मैने नारी-जन्म पाया ! मुझे धिक्कार है, मैं पुत्र क्यो न हुई। परन्तु स्त्री अबला क्यो? क्या उसके हाथ-पैर नही, मस्तिष्क नही, हृदय नही ? शक्ति, तेज, बल-सभी तो शिक्षा और अभ्यास से प्राप्त होता है। देखू ! सुकोमल बाहुओ को वज्र-भुजदण्ड बना लू। इन कलाइयो में दुधारा खड्ग धारण करू । माता, तुम क्षोभ मत करो, मै पिता का राज्य शत्रु से छीनूगी तो मेरा नाम तारा रहा, मै राजपूतानी की बच्ची हू । मैं तुम्हारे पुत्र का काम करूगी।" "प्रिये, तारा पुत्री कहा गई ?" "शिकार को गई है।" "अरे, उस दिन इतना मना किया था!क्या वह बालक है ? उसे रोका नही?' "तुम्ही रोक देखो।" "वह विवाह के योग्य हो गई।" "इसका विचार भी तुम्ही करो।" (तारा का प्रवेश) "पिता जी, आपने यह बाघ का बच्चा देखा?" "अरे-अरे, उसे यहा लाया कौन?" "झाड़ी मे घुसकर लाई हूं। इसकी बेचारी माता आज मेरे बछे से विद्धहोकर मर गई। " "मर गई ? तुमने बाधिन को मारकर बच्चा छीन लिया ?" "पिता जी, कैसा प्यारा बच्चा है !"