१५२ वीर बादल रता छाई हुई थी। राजपूत बडी-बडी काली दाढ़ियों के बीच दातो की बत्तीसी भीचे, सम्पुटित होठ किए, बिना बड़ी-बडी ढाल कन्धे पर लिए, तलवारे म्यान मे किए, लाज और अपमान से नीचे आंखें किए खड़े थे। सुलतान सबके बीच साहस और उत्साह की मूर्ति बना धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा था। राणा ने किले के फाटक पर उसका स्वागत किया था। राजपूतो के वचन पर उसे भरोसा था। वह नि.शस्त्र तथा एकाकी था। वह चपल घोडे पर सवार था और आगे बढ़ रहा था। उसके बाई ओर राणा चुपचाप एक घोड़े पर सवार आगे बढ रहा था, और पीछे चुने हुए सवार थे। सुलतान अपनी मित्रता और प्रसन्नता प्रकट करने के लिए बहुत-सी बातें करता जाता था। जनाने दरवाज़ो पर सब घोडों से उतर पड़े। वे उन सीढियो पर चढे जहा किसी यवन के पांव नही पडे थे। राजपूत क्रोध से एव बादिया भय से थरथर कापती जा रही थी। सन्नाटा था, विरद गानेवाले चुप बैठे थे, डाडिने अपने मुह पर घूघट डाले सिमटी खड़ी थी। नौबतखाने के नक्कारे औधे पड़े थे। सुलतान ने कहा-महाराणा, आज से हम दोनो दोस्त हुए. हुए न, कहिए? महाराणा ने खिन्नमन होकर धीरे से कहा-सुलतान की यदि यही इच्छा है तो मैं वचन देता है कि राजपूत हमेशा सच्ची दोस्ती निभाएगे। "इसका मुझे पूरा भरोता है, आप देखते है कि आपपर मै यकीन करके खाली हाथ किले में आ गया हू । उम्मीद है, आप भी मुझे भरोसा देगे।" राणा ने गम्भीर स्वर मे कहा-तो क्या सुलतान मित्रता की ओर इतना कदम उठाकर भी वह अपमानजनक काम करने का इरादा रखते है, जो राजपूतो के लिए बिलकुल नया है ? "यकीन रखिए, राणा साहब, मेरी नीयत कुछ बुरी नही। जैसा हम लोगो मे कोल-करार हुआ है, उसके पूरा होते ही मै तुरन्त दिल्ली लौट जाऊगा।" राणा ने ठण्डी सास लेकर एक बार सरदारो की ओर देखा-वे नीची आखे किए खड़े थे। फिर उसने चादी की भाति सफेद महलो के आकाश को छूनेवाले सुन- हरी कंगूरो को देखा जो सूर्य की धूप मे चमक रहे थे। तब सूर्यवश के उस अधिकारी ने एक ठण्डी सांस ली और कहा-तब आइए, राजपूत अपनी बात पूरी करेगे। दोनों आगे बढे। दो कदम बाद सुलतान झिझककर खड़ा हो गया, उसने देखा- सामने पूरे कद के आइने मे वह अलौकिक सुन्दरी-जैसे रत्नो से जड़ी तस्वीर
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