, जैसलमेर की राजकुमारी एक राजपुत्री के शौर्यपूर्ण चरित्र और वोरतापूर्ण कार्य-क्षमता की झलक इसमें वर्णित है | अकेली राजकन्या ने कुछ मास तक जैसलमेर दुर्ग की मुगल सैन्य से रक्षा की। राजकुमारी ने गर्व से हसकर कहा-पिता, दुर्ग की चिन्ता न कीजिए। जब तक उसका एक भी पत्थर पत्थर से मिला है, उसकी मैं रक्षा करूगी, चाहे अलाउद्दीन कितनी ही वीरता से हमारे दुर्ग पर आक्रमण करे। आप निर्भय होकर शत्रु से लोहा लीजिए। यह जैसलमेर के राठौर दुर्गाधिपति महाराव रत्नसिंह की कन्या थी । यह इस समय बलिष्ठ अरबी घोडे पर चढी हुई थी और मर्दानी पोशाक पहने थी। उसकी कमर मे दो तलवारे लटक रही थी। कमरबन्द मे पेशकब्ज, पीठ पर तरकस और हाथ में धनुष था । वह चपल घोड़े की रास कोबलपूर्वक खीच रही थी जो एक क्षण भी स्थिर रहना नही चाहता था। रत्नसिंह जिरह बख्तर पहने एक हाथी के फौलादी हौदे पर बैठे आक्रमण के लिए प्रस्थान कर रहे थे। सामने सहस्रावधि राजपूत सवार नगी तलवारें लिए मैदान मे खड़े थे। उनके घोड़े हिनहिना रहे थे और शस्त्र झनझना रहे थे। रत्नसिंह ने पुत्री के कधे पर हाथ धरके कहा-बेटी,तुमसे मुझे ऐसी ही आशा है। मैंने तुझे पुत्री की भाति नही, पुत्र की भाति पाला और शिक्षा दी है। मै दुर्ग को तुझे सौपकर निश्चिन्त हो गया हू । देखना, सावधान रहना । शत्रु केवल वीर नहीं, धूर्त और छलिया भी है। बालिका ने वक्र दृष्टि से पिता को देखा और हंसकर कहा-नही, पिताजी, आप निश्चिन्त होकर प्रस्थान करें, किले का बाल भी बाका न होगा। रत्नसिंह ने एक तीव्र दृष्टि अपने किले के धूप से चमकते हुए कगूरोपर डाली और हाथी बढ़ाया। गगनभेदी जय-निनाद से धरती-आसमान काप उठे। एक १४४ बा-६
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