१२ कहानीकार का वक्तव्य हिन्दी में कई कहानियां लिखी गईं और उपन्यास भी एक-दो लिखे गए। अम्ब- पाली हिन्दी-साहित्य की एक चर्चा का विषय बन गई। फिर वह काल भी आया जब मैंने अम्बपाली के चरित्र को लेकर 'वैशाली की नगरवधू' लिखी। यह मेरे हाथों साहित्य का श्रृंगार था, जैसा मैं कर सकता था। जैसा सजा सकता था,वैसा मैंने वैशाली की नगरवधू के रूप में साहित्य-शृंगार किया। नगरवधू को जब मैंने समाप्त किया, तभी मैं समझ गया था कि साहित्य- कार का काम इतिहास की विवेचना करना नहीं है। साहित्य का सत्य जीवन के सत्य से पृथक् है । इतिहास जीवन का सत्य है । इसलिए साहित्य के सत्य में और इतिहास के सत्य मे तादात्म्य नही हो सकता। इतिहास का सत्य चिर सत्य है। इसका अभिप्राय है कि अमुक काल में ऐसा हुआ, परन्तु साहित्य का सत्य स्थिर सत्य है। उसका अभिप्राय यह है कि अमुक काल में ऐसा होता था। इसीपर से । मैंने नौ निर्दिष्ट रसो के बाद एक अनिर्दिष्ट रस 'इतिहास रस' की स्थापना की। इसका अभिप्राय यह है कि साहित्यकार इतिहास के तथ्यो को यथावत् वर्णन करने के लिए बाधित नही है। वह अपनी कल्पना और भावनाओं का पूरा विकास कर सकता है। बिना इसके साहित्य का सत्य स्थिर नहीं रह सकता । नगरवधू में मैंने काफी कल्पना की उड़ानें भरी है । कहना चाहिए, उसमें इतिहास का केवल रस ही रस है, स्वाद ही स्वाद है, शेष तो सब कुछ कल्पना है, भावना है, शृंगार है, और जीवन की विविध व्यापक व्यंजनाएं हैं, धारणाएं हैं। 'सोमनाथ' में आकर भी यह भाव व्यक्त हो उठा है । गजनी के महमूद ने सोमनाथ पर अभियान किया था। उपन्यास में यह तथ्य तथा कुछ नाम ही ऐतिहासिक हैं,शेष सब कुछ कल्पना है। परन्तु उस कल्पना का आधार मनोरंजन नहीं है; जीवन की गम्भीर व्याख्याएं हैं । शोभना, फतहमुहम्मद, दामो महता, महमूद और अन्य पात्र गहन मानवीय सत्त्वों की अभिव्यक्ति करते हैं। उनमें त्याग है, तप है,शौर्य है, राजनीति, धर्मनीति और कूटनीति के भारी-भारी यन्त्र है। जातियो मे उत्थान-पतन, विनाश और विलय के रेखाचित्र हैं। मैंने चेष्टा की है कि पाठको के मन पर इन चरित्रों की यहरी, छाप पड़े और पाठक तनिक भी कलुष मन में यहा से न लेने पाएं। मेरे मन में क्रोध बहुत है, तीव्रता भी कम नही। कलुष का भी अन्त नही। परन्तु साहित्य-सृजन मैं तो मैं केवल दो ही वस्तुएं काम में लेता हू-धैर्य और न्याय, किसी भी दशा में मैं इनसे इधर-उधर नहीं होता। अपनी सम्पूर्ण चेतना
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