१०२ बर्मा रोड वह आसाम का मुसलमान था। जनरल ने सेल का द्वार खुलवाकर भीतर प्रवेश करते हुए कहा-गुड मानिंग मिस्टर सफदर। कैसे हो?-मिलाने को हाथ बढ़ाया। "खूब अच्छा हूं।" सफदर ने हाथ मिलाते हुए हसकर कहा, "आजकल चाय, टोस्ट, गोश्त सब मिलता है। ये साले जेलवाले समझते है फांसी का पछी के घड़ी का। खूब खिलाते-पिलाते है मेरे बेटे, शायद इसलिए कि उसकी गर्दन खूब माटी हो जाए जिससे फांसी का फन्दा ढीला न पड़ जाए।" इतना कहकर सफदर खूब हसा। जनरल भी ज़ोर से हस पड़े। वे उसके कम्बल पर बैठ गए। एक उच्चकोटि के अग्रेज अफसर की ऐसी आत्मीयता देखकर सफदर आश्चर्य- चकित रह गया। उसने कहा-आप कौन है, यह मैं नहीं जानता, मगर आपका खुश अखलाक देखकर मैं हैरान हू। आपके तमगे और फीतो से आप कोई फौजी अफसर मालूम होते हैं। मगर जो हों, कहिए मैं आपकी क्या खिदमत बजा ला सकता हूं? "यह बात तो फुर्सत मे होगी मिस्टर सफदर, अभी तुम मेरे साथ चलो।" "कहा ?" "मेरे बगले पर।" "यह कैसे हो सकता है ? मैं तो फांसी पाया हुआ कैदी हूं।" "तुम्हारे जैसे बहादुर आदमी को मैं फासी पर लटकते नही देख सकता। मैं जनरल वुड बर्मा मोर्चे का मार्शल है। मैंने गवर्नर से सिफारिश करके तुम्हे माफी दिलवाई है। तुम आजाद हो।" सफदर के मुंह से बात नही निकली। वह टुकुर-टुकुर साहब के मुख की ओर देखने लगा। साहब ने माफी का परवाना निकालकर उसके हाथ में दे दिया। इसे देखकर उसने कहा-साहब, यह तो बड़े आश्चर्य की बात है। यदि मैं सपना नहीं देख रहा, तो कहिए इस अहसान का बदला मैं कैसे चुका सकता हूं? "एक चीज़ देकर।" "वह क्या ?" "दोस्ती । तुम आज से हमको अपना दोस्त, जिगरी दोस्त स्वीकार करो।" सदा के लापरवाह, उद्दण्ड और दुर्दान्त खूनी डाकू की आखों में पानी भर
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