पृष्ठ:बाल-शब्दसागर.pdf/१७२

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किंगरी किंगरी - संज्ञा स्त्री० छोटा चिकारा । किचन - संज्ञा पुं० थोड़ी वस्तु । किंचित्- वि० कुछ | किंजल्क - संज्ञा पुं० १. कमल । २. कमल के फूल का पराग । वि० कमल के केसर के रंग का । किंतु अव्य० लेकिन । किवदंती - संज्ञा स्त्री० अफवाह | किंवा अव्य० अथवा । किशुक- संज्ञा पुं० पलाश । कि - सर्व ० क्या ? अव्य० एक संयोजक शब्द जो कहना, देखना इत्यादि कुछ क्रियाओं के बाद उनके विषय वर्णन के पहले भाता है। किकियाना- क्रि० प्र० रोना । किच किच - संज्ञा स्त्री० बकवाद । किचकिचाना - क्रि० प्र० दांत पीसना । किचकिचाहट - संज्ञा स्त्री० किचकिचाने का भाव । किचकिची - संज्ञा स्त्री० किचकिचाहट । किचड़ाना- क्रि० प्र० ( अखि का) कीचड़ से भरना । किछु - वि० दे० "कुछ” । किटकिटाना- क्रि० प्र० कोध से दाँत पीसना | किट्ट -संज्ञा पुं० १. धातु की मैल । २. तेल आदि में नीचे बैठी हुई मैल । किती - क्रि० वि० क । कितक - वि०, क्रि० वि० कितना । कितना - वि० [स्त्री० कितनी ] किस परिमाण, मात्रा या संख्या का ? क्रि० वि० १. किस परिमाण या मात्रा मैं ? कहाँ तक ? २. अधिक। बहुत ज्यादा । १६४ किफायती किता - संज्ञा पुं० १. ब्योंत । २. ढंग । किताब- संज्ञा स्त्री० [वि० किताबी ] पुस्तक । किताबी - वि० किताब के आकार का । कितिक वि० दे० "कितक", "कितना" । कितेक + - वि० कितना । कितै / - अव्य० दे० "कित" । कि तो + - वि० [स्त्री० किती ] कितना । क्रि० वि० कितना । किधर - कि० वि० किस ओर । किधौं - अव्य० श्रथवा । किन सर्व० 'किस' का बहुवचन । क्रि० वि० क्यों न । संज्ञा पुं० चिह्न | किनका संज्ञा पुं० [खी० भल्या० किनकी] १. अन का टूटा हुआ दाना । २. चावल आदि की खुदी । किन हा + - वि० (फल) जिसमें कीड़े पड़े हों । कक्षा | किनार - संज्ञा पुं० दे० " किनारा" । किनारदार - वि० ( कपड़ा ) जिसमें किनारा बना हो । किनारा-संज्ञा पुं० १. अधिक लंबाई और कम चौड़ाईवाली वस्तु के के दोनों भाग जहाँ से चौड़ाई समाप्त होती हो । २. तीर । किनारे - क्रि० वि० १. तट पर । २. अलग । किन्नर - संज्ञा पुं० [स्त्री० किन्नरी] १. एक प्रकार के देवता जिन के मुख घोड़े के समान होता है । २. गाने- बजाने का पेशा करनेवाली एक जाति । किन्नरी - संज्ञा स्त्री० किश्वर की स्त्री । किफायत-संज्ञा स्त्री० कमखुर्ची । किफायती - वि० सँभाल कर खर्च करने- थाला ।