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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की अात्मकथा यही सोच रहा हूँ । आचार्य ने प्रेम-भरे स्मित के साथ कहा--कभी खोजा था वत्स १ कुमार ने कहा-'नहीं, आर्य ! श्राचार्य ने पुलकित होकर कहा–'क्या ब्राह्मगा और क्या श्रमण, मनुष्यता दोनों ही जगह विरल है, कुमार !फिर हँस कर कुमार की पीठ सहलाने लगे। थोड़ी देर चुप रहने के बाद कुमार ने मेरी ओर देखा । वे कुछ सोच में पड़े हुए थे । फिर उन्होंने अखे प्राचार्य की ओर फिराई । बोले---स्थाण्वीश्वर में मैं ऐसा गृह नहीं देख रहा हूँ, जो राजवंश से सम्बद्ध न हो। फिर धर्मतः मैं जो-कुछ जानता हूँ उसे महाराजाधिराज को निवेदन करना आवश्यक है। धर्मतः बाण भई भी राजकोप के भागी होंगे और उस इतकी निपुशिशु का का सर्वनाश तो निश्चित है। इसीलिए मैं यह सोच रहा हूँ कि बाण भट्ट कल सायंकाल तक देव पुत्र-नन्दिनी और निपुणिका को लेकर मगध की ओर चले जायें। अाजे ही मैं एक बड़ी नौका की व्यवस्था कर देता हूँ। देवपुत्र-नन्दिनी आज रात को उसी में विश्राम करे । कल प्रस्थान के पूर्व बाण भट्ट मुझसे मिल ले । कल होलिकोत्सव है। कल शासन और धर्म के विभागों में छुट्टी होगी। मैं परसों मध्याह को महाराजाधिराज को सारी बात खोल कर समझाऊँगा । देवपुत्र-नन्दिनी को कोई कष्ट न हो, इसकी व्यवस्था करूगा और उनकी प्रीति प्राप्त करने का प्रयत्न भी।' श्राचार्य ने उत्साह दिया-‘साधु वत्स ! यही कुमार के योग्य है । | कुमार ने टोंक कर कहा---परन्तु यह अनुताप मेरे चित्त में काँटे की तरह चुभा रहे ही गया, आर्य, कि देवपुत्र-नन्दिनी ने निर्दोष राजवंश पर कोप किया है। छोटा राजकुल जो पाप कर रहा है, उसका प्रायश्चित यदि हमें इस प्रकार करना पड़ा, तो अनर्थ हो जायगा । फिर मेरी ओर मॅड़ कर बोले- मुझे देवपुत्र-नन्दिनी के