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बाण भट्ट की आत्म-कथा


मुझे उस समय कुमार की उदारता, विनय और शील देख कर बड़ा आश्चर्य हुआ; परन्तु वास्तव में कुमार थे ही ऐसे। वे गुणियों के आश्रय, गुणों की जन्मभूमि, विद्वानों के रक्षक और विद्या के भाण्डागार थे। उनकी आँखे प्रेमरस से परिपूर्ण थीं; पर उनकी भ्रु कुटि में से आतंक झर रहा था। यद्यपि वे इस समय विहारोचित वेश में थे; परन्तु राजकीय गरिमा सहज ही उनके मुख-मण्डल से प्रकट हो रही थी, जैसे अन्तर्मदावस्थ कोई तरुण गजराज हो। यद्यपि उनके हाथ में उस समय कोई शस्त्र नहीं था; पर एक सहज तेज से वे बलयित थे और विषधर-वेष्टित बाल चन्दन-तरु के समान भीषण मनोरम दिखाई दे रहे थे। अवस्था बहुत कम थी; पर मुखमण्डल पर अनाविल बुद्धि और द्रुत विवेचना शक्ति स्पष्ट दिखाई दे रही थी। क्षण-भर तक मैं उस तेज से अभिभूत हो गया था; पर भट्टिनी की याद आते ही मैंने अपने को सम्हाल लिया। कुमार ने आवश्यक शिष्टाचार के बाद देवपुत्र तुवर मिलिन्द की कन्या के विषय में प्रश्न किया। मैंने आदि से अन्त तक सारी कथा संक्षेप में सुना दी। यह भी बताया कि कल उन्हीं का दर्शन करने जा रहा था और बीच में यह कार्य करना पड़ा। कुमार ने धैर्य के साथ सब सुना। एक बार भी उनके चेहरे पर कोई विकार नहीं आया, जिसमें मैं समझ सकूँ कि किस कार्य को वे अच्छा समझ रहे और किसे बुरा। सब-कुछ समाप्त होने के बाद मैंने उनकी ओर जिज्ञासा के भाव से देखा। वे शान्त थे। किसी बात पर कोई टिप्पणी किए बिना बोले―‘देवपुत्र की कन्या के लिए मेरा गृह प्रस्तुत है।’

मैंने विनीत भाव से कहा―‘देवपुत्र की कन्या स्थाएवीश्वर के राजवंश से सम्बद्ध किसी व्यक्ति के घर नहीं जा सकेंगी। मेरा मत है कि स्थण्वीश्वर ने अपने को सम्मानित के सम्मान देने के अयोग्य सिद्ध किया है।’

मेरी बात कुमार को लगी। उनको भ्रु कुटियाँ तन गई। कुछ