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बाण भट्ट की आत्म-कथा


'तुम कहाँ से आए हो, ब्रह्मचारिन्? –मैंने प्रश्न किया ।

  • मैं सौवीर से आया हूँ । अाचार्यपाद के साथ ही चला अाया

था । सौवीर में बाह्य आचारों की पूजा नहीं होती। वहाँ लोग तत्त्व जानना चाहते हैं । ‘परन्तु कान्यकुब्जों में तत्त्व-जिज्ञासु न होते, तो कुमार कृष्ण कैसे होते है। ‘कुमार की बात और है । इतनी छोटी वय में इतना गम्भीर्य दुर्लभ है ।' 'वसुभूति कौन हैं, भाई ? “वसुभूति इस देश के वाद-धुरन्धर सौगत तार्किक हैं । वे तर्क से सद्धर्म का प्रचार चाहते हैं । इस देश में यही हवा बहती है, भद्र ! तर्क से ही मानो ये भवान् बुद्ध की करुणा को देशव्यापी बना देंगे । धिक् ' “तुम्हारा मत क्या है, ब्रह्मचारिन् । ‘प्राचार्यपाद कहते हैं कि तर्क वस्तु ही ग़लत है । भगवान ने जीवन में करुणा को प्रतिष्ठित करना चाहा था । जिसमें वह करुणा नहीं, वह सौगत नहीं, वह सद्धर्म का सत्यानाश करता है। तर्क से विद्वेष बढ़ता है, विद्वेष से हिंसा पनपती है और हिंसा से मनुष्यता का विध्वंस होता है। वसुभूति को ये बातें थोथी जान पड़ती है । वह नित्य अाचार्य देव को शास्त्रार्थ के लिए ललकारता रहता है । पर श्राचार्य देव क्षमा के निधि हैं । सारी दुनिया जानती है और स्वयं महाराजा- धिराज भी जानते हैं कि वाद-सभा में सुगतभद्र और वसुभूति का कोई जोड़ ही नहीं है। सुरातभद्र सिंह हैं, वसुभूति स्यार । परन्तु ने अपने को भगवान से भी बड़ा मानता है। वसुभूति को हमारे विहार के कई पंडितों ने ललकारा है; पर वह तो श्राचार्यपाद से ही लड़ना चाहता है ।