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बाण भट्ट की आत्म-कथा

५८ बाण भई की आत्म-कथा | राजबाला की आँखें नीची हो गई। बड़े-बड़े पुण्डरीक-दल-से नयनों में अश्न भर आए । भई हुई आवाज़ में बोलीं-“हाँ, भद्र ! मैं थोड़ी देर तक आश्चर्य में डूबता-उतराता खड़ा रहा । उचित स्थान पर विधाता का पक्षपात हुआ है । हिमालय के सिवा गंगा की धारा को कौन जन्म दे सकता है ? महासमुद्र के सिवा कौस्तुभमणि को कौन उत्पन्न कर सकता है ? धरित्री के सिवा और कौन है जो सीता को जन्म दे सके ? मैं बड़भागी हूँ, जो इस महिमाशालिनी राजबाला की सेवा का अवसर पा सका । अहा ! किस पाप-अभिसन्धि ने इस कुसुम-कलिका को तोड़ लिया था ? किस दुबह भोग-लिप्सा ने इस पवित्र शरीर को कलुषित करने का संकल्प किया था ? किस दुर्निवार पाप-भावना ने ज्योत्स्ना को मलिन करना चाहा था ? मेरे हृदय की भक्ति और भी बढ़ गई । मैं सम्भ्रमपूर्वक हाथ जोड़ कर बोला--'हे राजनन्दिनी, अापकी आज्ञा शिरोधार्य है; पर आज तो इस सन्देश को ले जाना बुद्धिमानी का काम नहीं है। आप एक बार सोचे कि हम लोग कैसी परिस्थिति में है । भट्टिनी ने अवसन्न होकर कहा--'मैं नहीं जानती, भद्र ! जो उचित हो, सो करो। यदि सुगतभद्र वही हैं, तो उनसे कुछ भी कहने में हानि की कोई सम्भावना नहीं है। इतना कह कर वे रो पड़ी। | निपुर्णिका ने सँधे गले से कहा--'ना भट्टिनी, रोश्रो मत । और उनके गले लिपट गई। मैं कर्तव्यमूढ़ बना खड़ा रहा । नियुणिका ने सँधे गले से हो कहा-‘भट्ट, जाओ ।। | मैं तत्काल बाहर निकल आया । आते-आते देख आया कि भट्टिनी फफक-फफक कर रो रही हैं। निश्चय ही मेरा हृदय उस समय कठि के समान संज्ञाहीन रहा होगा; नहीं तो इतनी बड़ी वेदना वह सह कैसे सका १ निपुणिका ने भीतर से किवाड़ बन्द कर लिए। मैं बौद्ध विहार की ओर अवश गति से चल पड़ा। मेरे पैरों में स्फूर्ति नहीं