पृष्ठ:बाणभट्ट की आत्मकथा.pdf/४१

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तृतीय उच्छ्वास

निपुणिका आँगन के बाहर मेरी प्रतीक्षा कर रही थी। उसकी सखी बनकर मैं जब बाहर आया, तो हंस के समान धवल-वर्गा, ज्योत्स्ना से भरी हुई धूरती को देख कर चित्त एक अनुभत अानन्द से भर गयो । मैंने सोचा कि जब भगवान त्रिलोचन के उत्तमांग से झरने वाली गंगा की धारा समुद्र से भर रही होगी, तो कुछ ऐसी ही शोभा उस समय भी हुई होगी । चन्द्रमा निश्चय ही देर से प्रकाश पर विचर रहा था । उदयकाल में जो एक लालिमा रहा करती है, उसका कहीं कोई चिह्न नहीं रह गया था। इन्द्र का ऐरावत राज जब स्वर्मन्दाकिनी में अवगाहन करके निकलता होगा, तो उसके श्वेत कुम्भस्थल पर से सिन्दूर धुल जाने के बाद ऐसी ही शोभा होती होगी । सारा प्रकाश चाँदनी से इम प्रकार भर गया था, जैसे किसी अज्ञात शिल्पी के सुधा- विलेपन-चूर्ण का भार ही उलट गया हो । ताराअों का टिमटिमाना देखकर मुझे inसा लगा कि वे झीम रही हैं और जिस-किसी क्षण लुढ़क कर सो पड़ेगी ! मृदु-मन्द सान्ध्य सगीर ने गृह-धेनुओं पर अपना प्रभाव डाल दिया था, क्योंकि उसके स्पर्श से इन जीवों में एक अलस-निद्रा का भाव आ गया था। उनके रोमन्थन-व्यस्त (पागुर में लगे हुए) जबड़े धीरे-धीरे शिथिल हो रहे थे और अखों की बरौनियाँ जुड़ती जा रही थीं। मुझे सब से दयनीय चन्द्रमा में का वह मृग लगा। ऐसा जान पड़ता था कि वह अभागी प्यास का मारा इस अमृत- सरोवर में आया था और अब अमृत-पंक में पैंसा हुअा कर्त्तव्यमूढ़ बना जबदा सी खेड़ा था !' क्षण-भरके लिए मेरे मन में आया कि १ कादम्बरी, कथामुख के संध्या-वर्णन से सुलनीय ।