पृष्ठ:बाणभट्ट की आत्मकथा.pdf/४००

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
३८५
बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की आत्म-कथा। ३८५ काल में ही महामाया के लाखों शिष्य पुरुषपुर के आगे एकत्र हो गए हैं । इनमें अधिकांश अशिक्षित अोर असंघटित थे। मेरे पिता ने उनको संघटित करने का काम प्रारंभ कर दिया है । ऊभा के उस पार दस्यु की कोई संधान नहीं पाया गया हैं । संभवतः वे लौट गए हैं । परन्तु म्लेच्छ कहे जानेवालों का हृदय अभी परिवर्तित नहीं हुआ है। तुम मेरे साथ चलकर उनमें काम करने को तैयार हो जाश्री । हाय भट्ट, निपुग्गिका को मेर। यात कभी ऊँची ही नहीं। मैं उसे कभी इस सत्य की ओर उन्मुन्य नहीं कर सकी, वह अपने रास्ते अली गई। मैंने भट्टिनी के साथ चलने का वचन दे दिया । उल्लेसित होकर भट्टिनी ने और उनकी आज्ञा से मैंने साथ ही साथ महावराह को प्रणाम किया। मह विराट ने गोपन' हास्य म हमारे उल्लास का तिरस्कार किया होगा क्योंकि निपुर्णिका का श्राद्ध समाप्त होते ही आचार्य भवपाद ने मुझे पुरुषपुर जाने की आज्ञा दी । उन्होंने स्पष्ट रूप में आदेश दिया कि भट्टिनी तक तक स्थावीश्वर में ही रहेगी । भट्टिनी ने सुना तो उनका मुख विवर्ण हो गया । झुकी हुई अखिों को और भी झुका- कर बोलीं--- जल्दी ही लौटना ।' मैंने कातर कंठ के वाष्प-रुद्ध वाक्य को प्रयत्न-पूर्वक देवा लिया । लेकिन अन्तरात्मा के अतल गह्वर से कोई चिल्ला उठा---‘फिर क्या मिलना होगा ?