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बाण भट्ट की आत्म-कथा

२८ । बाण भट्ट की आत्मकथा कर दिया है, तेरी परवा मुझे नहीं है । अब और कौन रमणी विपत्ति में फँसी हुई है, जिसका उद्धार मुझे करना होगा ?? निपुणिका ने कहा-‘भट्ट, अब तक तुम ने नारी में जो देव- मन्दिर का आभास पाया है, वह तुम्हारे भोले मन की कल्पना थी । आज मैं तुम्हें सचमुच का देव-मन्दिर दिखाऊँगी । परन्तु उसके लिए तुम्हें छोटे राजकुले में मेरी सखी बनकर प्रवेश करना होगा और कीचड़ में धंसे हुए उस मन्दिर का उद्धार करना होगा । आज ही उत्तम अवसर हैं। महावराह ही मेरे वास्तविक सहायक हैं। उन्होंने ही तुम्हें यहाँ भेजा है । तुम न आते तो भी मुझे तो यह करना हो था । बोलो भट्ट, तुम यह काम कर सकोगे ? तुम असुर-गृह में आबद्ध लक्ष्मी का उद्धार करने का साहस रखते हो ? मदिरा के पंक में डूबी हुई कामधेनु को उबारना चाहते हो ? यौला, अभी मुझे जाना है ! महावराह ने आज ही अनुमति दी है। इस सीता का उद्धार करते समय तुम्हें जटायु की भति' शायद प्राण दे देना पड़ेगा। है साहेस !* | मैं हँसा । यह काम मैं ज़रूर कर सकता हूँ । केवल एक बार मैंने अपने स्वर्गीय पिता को मन-ही-मन प्रणाम कियापिता, अाज आत्मोद्धार-कर्म से विरत रहना पड़ा। समय और सुयोग मिला, ती फिर कभी होता रहेगा। न जाने किस दुःखिनी के दुःख मोचन-यज्ञ में अपने आपको होम देने की पुकार अाई है । अाज इसी का ऋत्विज् बनने दो ।' निपुणिका की अोर देख कर मैंने कहा- 'निउनिया, मैं प्रस्तुत हूँ, नेपथ्य (वंश बदलने का वस्त्र आदि) ला ।'