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बाण भट्ट की आत्म-कथा

३८२ बाण भट्ट की अात्म-कथा का सम्मान करो । भट्ट, नारायण की माया बड़ी विचित्र है। कौन जानता था कि निपुणिका अपने दुःखी जीवन से स्त्रीत्व की मर्यादा स्थापित कर जायगी ! शोक मत करो आर्य, भट्टिनी की सेवा करो, जो अनर्थ हो गया उसे नारायण का प्रसाद मानी । कुछ कल्याण ही होने वाला हैं ! भट्टिनी कह रही थीं कि नरलोक से लेकर किन्नर लोक तक एक ही रागात्मक हृदय के संधान के काम बीच में ही रुक गया ! क्यों रुके। अर्थ १ निपुगि का के जीवन का अलिदान तभी सार्थक होगा जब यह संधान सफल हो । उपकाल हो गया है, मुझे अावश्यक कर्तव्य में जाना पड़ेगा | मैं शीघ्र ही लौट श्राऊँगी । तुम सावधान रहना । चलती हूँ ।। | चलने को जब वह मॅड़ी तो चारुस्मिता दिख गई। उसने अञ्जलि बाँध कर सुचरिता को प्रग् [म किया ! सुचरिता ने मेरी अोर देखा । वह इस अमूव-सुन्दरी का परिचय जानना चाहती थी। मैंने संक्षेप में परिचय दिया–कान्यकुब्ज की नगर श्री चारुस्मिता हैं !! सुचरिता ने आश्चर्य से स्तब्ध रह गई । अविश्वास के से स्वर में बोल उठी- चारुस्मिता ! चारुस्मिता ने कुछ लजित-सी होकर कहा---‘हाँ देवि, मैं ही चारुस्मिता हूँ । यदि अनुमति हो तो मैं अाज भट्टिी की सेवा करू ।' सुचरिता की बड़ी-बड़ी अखें आश्चर्य से फैल गई। बोली- “आज नहीं बहन, आज भट्टिनी के पास इन्हें ही रहने दो ।' चारुस्मिता का चेहरा कुछ उतर गया। धावक ने समझा । धीर कंठ से ओला, ‘हाँ भद्र, हम लोगों को भट्टिनी की सेवा के और अवसर मिलेंगे । आज अपरिचितों का वहाँ जाना ठीक नहीं है। फिर सुचरिता की श्रीर देख कर धावक ने विनय मिश्रित स्वर में कहा- देवि, चारुस्मिता आर्य बैंकटेश भट्ट का दर्शन पाना चाहती हैं। क्या आप इनकी सहा- यता कर सकेती हैं १० सुचरिता को और भी विस्मय हुआ । उसने