पृष्ठ:बाणभट्ट की आत्मकथा.pdf/३७

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
२५
बाण भट्ट की आत्म-कथा

वाणु भट्ट की आत्मकथा २५ दिखाई पड़े। उन्हें दूर से देख कर ही निपुणिका सम्हले राई । एक क्षण का भी विलम्ब किए बिना उसने दुकान का दरवाज़ा बन्द कर दिया और मुझे भीतर. चलने का इशारा किया। दूकान के पीछे एक छोटा-सा अाँगन था, उसके बीचोबीच एक तुलसी का वृक्ष था, पास में एक छोटी वेदी थी और उस पर महावरा व एक अत्यन्त भव्य मूर्सि रखी थी । मूर्ति छोटी ही थी; पर जिसे मूर्तिकार ने उसे बनाया था, वह बहुत पका हुआ। शिल्पी जान पड़ता था। महावरह के दाँतों पर उठी हुई धरित्री के मुत्रमण्डल पर जो उल्लास और दीप्ति का भाव था, वह देखते ही बनता था। महावर हि के दोनों हाथ कटिदेश पर इस प्रगल्भता के साथ टिके हुए थे, और बाहुमूल की पेशियाँ इस दृढ़ता के साथ निकाली गई थीं कि देखकर मन में एक अपूर्व विश्वास उद्रिक हो उठता था । मुझे समझने में एक मुहूर्त का भी विलम्ब नहीं हुआ कि ये निपुणिका के उपास्य देव हैं और नियुणि को अपने उद्वार की ऐसी ही अशा लगाए हुए है ! निपुगि का ने एक बार मूर्ति को सतृष्ण नयनों से देखा, उसका गला तब भी सँधा हुआ था, और इशारे से मुझे एक छोटे घर में बैठने का निर्देश किया । मैं बैठ गया। वह फिर बाहर चली गई और बहुत शीघ्र ही स्नान करके फिर लौट श्राई । मेरी ओर देखकर वह बोली-थोड़ा रुको, मैं अभी आ रही हूँ। फिर वह कुशासन पर बैठ गई और महावराह के सामने सँधे गले से एक स्तोत्र पाठ करने लगी । उसके। अखिों से निरन्तर असू झरते रहे, वक्षःस्थल पर का वासन्ती उत्तरीय इस अश्रुधारा से भींग गया। मैं यह दृश्य एक टक देखता रहा। निपुण का धन्य है, महावराह धन्य हैं, तुलसी धन्य हैं, और मैं अभागा बाण इन तीनों को देख रहा हूँ, सो धन्य ही हैं। मुझे एक बार अपने गर्व की तुच्छता पर पश्चात्ताप हुश्रा । किसे आश्रय देने की बात मैं कह रही था ? निपु- णि का को जो श्राश्रय मिला है, उसकी तुलना में मेरा अाश्रय कितना