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बाण भट्ट की आत्म-कथा

३४६ बाण भट्ट की श्रात्म-कथा निर्मल धारा का उत्स कितना मनोरम होगा, पार्वती की उत्पत्ति-भूमि कितनी पवित्र होगी, पद्मा की जन्मदात्री कितनी गंभीर होगी । जिस कुल ने इस देव-दुर्लभ सौंदर्य को, इस ऋषि दुर्गम सत्य व्रत को, इस कुसुम कमनीय चारुता को उत्पन्न किया हैं—वह धन्य है, वह कुल पवित्र है, वह जननी कृतार्थ हैं। वह पिता सफलकाम है । देवि, तुम में निश्चय ही वह शक्ति हैं जिससे म्लेच्छ जाति का हृदय संवेदनशील बनेगा, उनमें उच्चतर साधना का संचार होगा, वे सम्माननीय को सम्मान सीखेंगे । वह परन्तु मैं चाहूँ भी तो अपनी काव्य-शक्ति कैसे तुम्हारे भीतर संचारित कर सकेंगा १ फिर इस आर्यावर्त के जटिले स्तर भेद को दूर करने के लिये तो मेरे पास कोई शक्ति है ही नहीं। मैं स्पष्ट सुनना चाहता हूँ देवि, यह संभव कैसे होगा ! भट्टिनी के अधरो पर मंद स्मित दिखाई दिया, बोलीं-'अद्भुत है भट्ट, आश्चर्य है, अपूर्व हैं यह तुम्हारी निर्मल वाग्धारा । मेरा जन्म सार्थक है, मेरा भाग्यहीन जीवन भी श्राज कृतार्थ है, तुम्हारी इन स्तुतियों ने मेरे अन्तर में अपूर्व आरमगरिमा संचरित की हैं । तुम क्या समझते हो कि मैं रानी की मर्यादा पाने से सन्तुष्ट हो गई हूँ ? ना भट्ट, तुम्हारी इस पवित्र पाक स्रोतस्विनी में स्नान कर के ही मैं पवित्र हुई हैं। इसी से मुझ में आत्मबल आया है । तुम्हारे निश्कलुष हृदय को देखकर ही मुझे सेवा का प्रशस्त पथ दिखा है। तुम जो कहते हो वह कठिन क्या है भला १ । भट्टिनी ने मुझे बहुत सोचने का अवसर नहीं दिया । बोली,

  • लेकिन, छोड़ो अभी इस बात को । प्राचार्य भवुपाद एक सप्ताह के

भीतर ही आ जायेंगे | कौन जाने, मेरे भाग्य में फिर कहाँ जाना बदा है; इस बीच कुमारकृष्ण वर्धन महाराजाधिराज को यहाँ ले आनेवाले हैं। मेरे मन में श्राज किसी के प्रति कोई कल्मष नहीं है । मेरे पास ऐसा क्या है जो उन लोगों के अनुग्रह के प्रतिदान में दे सकें। मेरे