पृष्ठ:बाणभट्ट की आत्मकथा.pdf/३३९

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
३२९
बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की अात्म-कथा ३२६ चंद्रदलों की भाँति ताण्डव बिहारी मत्त धूर्जट के बिकट अट्टहास के छोटे छोटे अवयवों की भाँति, ताण्डव विध्वस्त वासुकि नाग के फणा- शकलों की भाँति, पञ्चजन्य शंख के सहोदरों की भाँकि, क्षीरोद सागर के हृदय पद्मों की भाँति, ऐरावत-समर्पित मुक्तामय मुकुट की भाँति महादेव की मूर्ति की शोभा बढ़ा रहे थे । उनके सामने अनुपात पूर्वक झुकी हुई नियुणिका स्वर्मन्दाकिनी की धारा की तरह मन में शत शत पवित्र ऊर्मियों को संचालित कर रही थी । महादेव को प्रणाम करते समय मेरा मन इस पवित्रता की मूर्ति को, भक्ति की सोशस्विनी, श्रद्धा की निर्झरिणी को, अनुराग की खनि को, सेवा की उत्सधारा की चुपचाप प्रणाम किए बिना न रह सका । प्रदक्षिणा करने के बाद बहिर पर एक बार फिर नियुणिका थकित की भाँति, स्तब्ध की भाँति, खोई हुई की भाँति रुक गई। उसका कंठ रुद्ध था, अखे'वरूप ल त थीं, मुख-मंडल रोमांचित था, देर तक वह उस चतुमुखी शिव मूति को कृतज्ञ नेत्रों से देखती रही । फिर धीरे धीरे मेरे पास अाई । मैंने भी अपना अन्तिम प्रणाम निवेदन किया और हुदतट की अोर अग्रसर हुआ । सिद्धायतन से थोड़ी दूर पर ही एक विशाल बकुल वृक्ष था । हम दोनों थोड़ी देर वहीं बैठे रहे। देर तक मौन रहने के बाद नियुणिका ने ही मौन भंग किया । बोली--अयं, आज मेरे जन्म-जन्मान्तर कृतार्थ जान पड़ते हैं। मेरे हृदय की ज्वाला अाज शान्त मालूम हो रही है। तुमने बार बार कहा है कि मेरा जन्म निरर्थक नहीं हैं, श्राज इस बात को जितना स्पष्ट समझ रही हूँ उतना पहले कभी नहीं समझा था । वह दूर कमलिनी पत्रों में सोई हुई निश्चल-निष्यन्द बलका को देख रहे हो न अर्य, ऐसा लग रहा है मानों मरकत पात्र में रखी हुई शंख शुकि हो ! मेरा मन आज उसी प्रकार निश्चल हो गया है, उतना ही निर्मल निर्विकार। मैंने प्रसन्न होकर कहा---‘बहुत प्रीत हुअा हूँ निउनिया, तेरी शान्ति