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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भई की अात्मकथा ३२७ बदरियों गुल्म, खदिर वृक्षों की झाड़ियों और तिन्तड़ी के तरुषएड सरोवर की शोभा को और भी बढ़ा रहे थे । जब कि पश्चिम ओर से चली हुई उष्णोष्ण वायु अाम बरसाती हुई त्रिलोक की समूची श्रद्रता सोख लेने पर उतारू थी और दावाग्नि से भी अधिक भयंकर बनकर बनराजि की नीलिमा को भस्म कर रही थी, जब कि विकराल बवएडरों से उड़ाई हुई धूल से सारा आसमान धूसर हो रहा था और जब कि प्रचण्ड मार्तण्ड' की खरतर किरणें धरती पर से हरीतिमा को दूर करने को बद्धपरिकर थीं उसी भयंकर काल में सौरभहृद आपने अासपास के वन-वृक्षों को नील भसण बनाए हुए था । यहाँ अाकाश शरत्कालीन निर्मेध नभामण्डल की याद दिला रहा था, उत्तप्त पश्चिमी वायु सिखाए हुए शार्दूल की भाँति अपना स्वभाव भूल गई थी । निपुणिका के यह शोभा बहुत मनोहर मालूम हुई । उसने छककर इस मदिर माधुरी का पान किया। स्नान करने के बाद जब हम शिवसिद्धार्थतन की और चले तो हृद-सीकर-सिक्त वायु ने मन और प्राण को शीतल कर दिया। एक क्षण के लिये भ्रम हुअा कि हम कैलास पर तो नहीं आ गए हैं । आइए, यही क्या वह वायु है जिसने कैलास के निझरों का सीकर आत्मसात् किया है, भूर्ज पत्रों को स्खलित किया है, नांदी के रोमंथ- फेन के स्पर्श से अपने को धन्य बनाया है हर-जटा-विहारिणी भवती मंदाकिनी का जल पान किया है, पार्वती के कर्णपल्लवों को आन्दो- लित किया है, रुद्राक्ष के पुष्प रेणु से अपने को सुगंधित बनाया है। नमैरु पल्लवों के बीजन से महादेव की क्लान्ति को दूर किया है। इस शिव सिद्धायतन में लोक समागम क्वचित् कदाचित् ही होता होगा। दूर तक यह जो मरकत-हरित बनराजि फैली हुई है, जो मनोहर हारीत पक्षियों के सुन्दर शब्दों से रमणीय हो गई है, जिसके कुड्मल भ्रमन्त भ्रमरो के नखराघात से जर्जरित है, जहाँ आज भी उन्मत्त कोकिल