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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की आत्मकथा कुछ अधिक शिल्प-विनोदी होंगे तो राजदन्त पर वीणा ज़रूर रखी होगी और उसे वलयाकार घेरकर कुरण्टक पुष्पा की माना भी लटक रही हो । शय्या से ज़रा दूर हटकर कई गांधार देश का स्तर बिछा होगा और सहृदय विट-विदूषकों के मनोरंजन के लिये ताम्बूल और सौगन्धिक पुटिका ( इत्रदान ), मातुलुङ्गवकू योर सिक्थ करण्डक ( मोम की पिटारी ) भी होंगे। वात्स्यायन ने सैकड़ों वर्ष पहले पाटलि- पुत्र के नागरिकों की जीवन-वर्या को देखकर जो व्यवस्था सुझाई थी, वह अाज समूचे भरतखण्ड के अभिजात-जनों का आदर्श बन गई है । आर्यावर्त के रईसों में रुचि इसी श्रादशं पर ढलती है । परन्तु लोरिक- देव का विश्राम-कक्ष एकदम भिन्न था। प्रस्तर भित्तियों में गजदन्त के नाम पर कुछ लौह कीलक थे जिन पर धनुषकांस्य और मुद्गर रखे हुए थे । वीणा का तो वहाँ नाम-गन्ध भी नहीं था | लारिक देव एक काष्ठ-शय्या पर ऊणस्तर ( कम्बल ) बिछे हुए थे; न कहीं ताम्बूल था, न सौगन्धिक पुटिका और चूत-फलक ! समूचा कक्ष उनकी विशाल बलिष्ठ देह के छन्द के साथ पूर्ण सामञ्जस्यमय था। चारों कोनों में धूपवर्तिकाएं जल रही थीं और कूर्च-स्थान पर बाल-वासुदेव की गो- वर्धनधारी मूर्ति के पाद देश में कर्पर दपक दीप्त हो रहा था । सुरुचि उस घर में पूर्ण मात्रा में थी; पर सुकुमारता का जान-बूझकर दूर रखा गया था। मुझे देखकर लीरिकदेव बड़े प्रेग से उठे, आसन देकर सम्मानित किया और दुर्लभ गन्धराज पुष्पों का सुन्दर स्तवक उपहार में दिया। फिर स्वयं अपनी काष्ठ-शय्या पर आसीन हुए । बिना किसी भूमिका के ही उन्होंने पूछा-‘भट्ट, तुमने देवपुत्र- नन्दिनी का परिचय मुझसे न देकर कान्यकुब्जेश्वर को क्यों दिया १ मैंने भी बिना भूमिका के ही उत्तर दिया---‘मैं भट्टनी का विनीत सेवक हूँ। उनकी आशा थी कि मैं किसी से उनका यथार्थ परिचय ने बताऊँ । मैंने कान्यकुब्ज-नरेश से भी उनका कोई परिचय नहीं दिया।