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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की आत्मकथा ३०६ है, मेरी ही शपथ करके तुम सत्य सत्य कहो मेरा कौन-सा ऐसा पाप चरित्र है जिसके कारण मैं विदारुण दुःख की भट्टी में जीवन जलती रही ? क्या स्त्री होना ही मेरे सारे अनर्थ की जड़ नहीं है। तुम इस छोटे से सत्य के साथ राष्ट्र जीवन के बड़े सत्य को अविरोधी पा रहे हो १ क्या वृहत्तर सत्य के नाम पर मिथ्या का ताण्डव नहीं चल रहा है ? कैसे आशा करते हो अार्य, कि देवपुत्र का प्रबल भुज-दण्ड इस समाज की नाश के गत से बचा लेप | महाकालिका खुलकर इस देवभूमि पर नृत्य करेंगी, और करेगी, महानाश के बबण्डर में यह सब कुछ तूल- खएड की भाँति उड़ जायगा, विच्छिन्न अदृश्य खण्ड पापों का प्रायश्चित्त असंभव है। निपुणिका सामान्य अपमानित नारी है। समाज की कुत्सित रुचि पर तिल तिल करके उसने अपने को होमा है, उसकी यह वाणी हृदयाग्नि के अतल गह्वर से निकल रही है । तुम लोग अधी को रोकने का व्यर्थ प्रयत्न कर रहे हो । पर आर्य, मेरी इच्छा है कि एक बार तुम सम्राट की भृकुटियों की उपेक्षा करके इस महासत्य को ऊँचे सिंहासन तक पहुँचा दो । यदि थोड़ा भी वह स्वर वहाँ तक पहुँच जाएगा तो संभव है महाकाल की क्रोधामि प्रशमित हो जाय । बड़ा दुःख है आर्य, इसी विराट् दैन्य के अन्तःस्पंदनहीन ढुह पर यह साम्राज्य की नयनहारी रथयात्रा चली जा रही है। मैं इस ढूह की एक नगण्य कशि का मात्र हूँ। मुझे इस योग्य बना दो कि आप अपनी अमि से धधक कर समूचे जंगल को भस्म कर दें । मैं तुम्हारा करावलंब चाहती हैं। नारी का जन्म पाकर केवले लाञ्छना पानी ही सार नहीं है । तुमने ही मुझे आनन्द की ज्योतिष्कणिका दी थी । तुम्हीं मुझे तेज की चिनगारी दो आर्य ! मैं आश्चर्य से स्तब्ध होकर यह व्याख्याने सुन रहा था । यह क्या प्रलाप है ? क्या फिर यह इतभागी स्नायु दुर्बलतावश वनवास करने लगी है ? अगर यह प्रलाप है तो ऐसा सत्यपूर्ण प्रलाप पहली बार