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बाण भट्ट की आत्म-कथा

२८८ बाण भट्ट की आत्मकथा | इधर भट्टिनी ने महारानी राज्यश्री का पत्र पढ़कर केवल एक बार मेरी श्रोर करुण दृष्टि से देखा और फिर सिर झुका लिया। उनके बंधुजीच पुष्प के समान लाल-लाले अधर क्षण-भर में आतप ग्लान केतक पुष्प के समान फीके पड़ गए और बड़ी-बड़ी मनोहर अखें भीगे हुए खंजन-शावक की भाँति हृतचेष्ट हो गई । बहुत दिनों के बाद मुझे देखकर जो सहज श्रानन्द-धारा उनकी समूची अंगयष्टि को घेरकर लहरा उठी थी, वह एकाएक शान्त हो गई मानों उत्तरंगित आनन्द-सिन्धु अचानक हिम-झंझा के हिलोर में पड़कर हिम हो गया हो । उनका उत्तरोष्ठ स्फुरित होकर रह गया, भाल-पट्ट ईषत् कुचित होकर शान्त हो गया और चिबुक देश ईषत्-स्पन्दित होकर सारे घर को एक प्रकार की करुण-मनोहर शोभा से अद्र कर गया। मुझे यह समझने में बिल्कुल देर नहीं लगी कि कोई बड़ा अपराध मुझसे ज़रूर हो गया है। मेरा सारा शरीर साध्वसजन्य पसीने से तर हो गया; मैं अपराद्ध की भाँति, हेय की भाँति, विधृत की भाँति उनके सामने कर्तव्यमूढ़ होकर ठिठक रहा । भट्टिनी को मेरे ऊपर दया आई, वे अपने-आप को सँभालने का प्रयत्न करने लगीं। इसी समय निपुणिका आ गई । निपुणिका अब भी दुर्बल थी, उसका शरीर पीला पड़ गया था। मेरे आने के समाचार से उस पाण्डु-दुर्बल शरीर में आनन्द का संचार हुआ था। स्पष्ट हो वह बहुत कुछ सुनने की आशा लेकर आई थी । परन्तु भट्टिनी की और मेरी अवस्था देखकर वह भी ठिठक गई । धीरे-धीरे वह भट्टिनी की ओर अग्रसर हुई । मुझे उसने चुपचाप प्रणाम निवेदन किया और भट्टिनी के पास पड़ी हुई रजत-पटोलिका का पत्र देखने लगी। उसकी जिज्ञासा शान्त करने के लिये मैंने संक्षेप में पत्र का इतिहास कह सुनाया । निपुणिका के मुख पर नाना भाव आए और चले गए। मेरी बात समाप्त होते न होते वह ऋद्ध नागिनी की भांति फुफकार उठी। उसकी आँखों से मानों अग्नि स्फुल्लिग की