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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाणु भट्ट की अात्म-कथा २८७ यद्यपि हृदय भट्टिनी की ओर ही पहले जाने को उतावला हो रहा था तथापि मैंने पहले लोरिकदेव से निवृत्त हो लेना ही उचित समझा। भद्र श्वर के सौध शिखर दिखाई दिए लेकिन मेरे लिये वे किसी अदृश्य देवता की अंगुलियों के ही समान थे । वे सब भइनों को ही दिखा रहे थे । इस चिलकती धूप में, झनझनाते हुए शरकान्तार में, वात्यालोल तप्त वायु में भी भट्टनी का स्मरण आते ही हृदय में एक प्रकार को शीतलता अनुभूत हुए बिना न रही, जैसे वहाँ कोई कल्पलता उग आई हो, चंद्रमरीचियाँ अंकुरित हो गई हों, चन्दनलता पल्ल- वित हो उठ हो । मेरा संपूर्ण शरीर उभिन्न-केसर कदम्ब पुष्प की भाँति रोमांचित हो आया। सामने क्षीणधारा महासरयू दिवाई पड़ी। महासरयू में स्नान करके मैं सीधे लोरिकदेव के पास गया । मुझे देख कर उस सहृदय अभीर सामन्त की आँखों में आँसू आ गए। बड़े आदर के साथ उन्होंने मुझे प्रणाम किया और कुशल पूछा । भट्टिनी का कुशल संवाद भी उन्होंने उसी प्रेम और श्रादर के साथ सुनाया। उनकी वाणी गद्गद हो गई थी । बोले, भट्टिनी इस वंध्य भवकानन की कल्पलता हैं आर्य ! ऐसा देव दुर्लभ स्वभाव न जाने किस तपस्या का फल है । प्रत हूँ, कृतज्ञ हूं, कनावड़ा हूँ जो तुम ने उन्हें यहाँ रहने दिया था। जाओ, वे तुम्हें देख कर बहुत प्रसन्न होंगी। उनकी आँखे दीर्घकाल से उपोषित हैं, उन्हें दर्शन दो ।' मैंने विनीत भाव से आभीर सामन्त के प्रति कृतज्ञता प्रकट की और उनकी अनुमति पाकर • महा- राजाधिराज का पत्र उन्हें दिया। क्षण भर तक वे आश्चर्य के साथ मेरी और देखते रहे । फिर धीरे से बोले---'अभी जाश्रो ।' इस प्रकार लोरिकदेव के पास पत्र पहुँचा देने के बाद मैं तुरन्त भट्टिनी के पास गया । लोरिकदेव स्वयं पढ़ना नहीं जानते थे। उन्होंने पत्र रख लिया और तत्काल अपने मंत्री को बुलवाया । मैंने छुट्टी ली।