पृष्ठ:बाणभट्ट की आत्मकथा.pdf/२९३

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
२८१
बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाणु भट्ट की आत्म-कथा २८ मैंने बीच में छेड़ कर पूछा--तो तुम, देवि, क्या इस व्यवहार के कारण महाराजाधिराज से अप्रसन्न हो ?' सुचरिता हँसी, बोली-- ‘फेन-बुद्बुद् के समान निरन्तर उद्भूयमान और विलीयमान इन नश्वर जीवों में महाराजा ही क्या और सेठ ही क्या ! मैं महाराजा- धिराज पर न प्रसन्न हूँ, न अप्रसन्न हूँ । अर्य, इनसे कहीं बड़े महाराजा की शरण पाने का प्रयास कर रही हूँ। मैं अप्रसन्न क्यों हूँगी, आर्य ! उन्होंने अन्याय किया है, तो उसका लेखा-जोखा वे जाने । मुझे तो जो भी दुःख या सुख मिलेगा, उसी से अपने नारायण की पूजा करूगी । यह हथकड़ी भी उन्हीं को अर्घ्यरूप में उपहृत हैं आर्य ! मैंने विनीत- भाव से कहा--‘देवि, तुम्हारे इस व्यवहार से नगर में बड़ी हलचल है। रक्तपात की भयंकर सम्भावना से राज्य के अधिकारी चिन्तित हो गए हैं। मैं जानना चाहता हूँ कि तुम महाराजाधिराज की सहायता कर सकती हो या नहीं ? सहायता शान्ति-स्थापन के लिए और प्रजा में विश्वास-आनयन के लिए अपेक्षित है। देवि, दुर्द मनीय दस्युशों की सेना गिरि-वर्म के उस पार एकत्र हो रही है। इस समय प्रजा में अस; न्तोष रहने से महान् अनर्थ की मुम्भावना है । सुचरिता ने आश्चर्य से मेरी ओर देखकर कहा----‘यह तो नई बात सुन रही हूँ, आर्य ! प्रजा ने इसके पूर्व तो कभी मेरे लिए कोई परवाह नहीं की । इस नगर में मैं बराबर निन्दा-भाजन रही हूँ। मैं नगर के विडम्ब रसिकों का छन्दानुरोध नहीं कर सकी हैं, इसलिए उन लोगों ने मेरे विषय में बहुत सा अपवाद फैला रखा है । अचानक प्रजा में यह विद्रोह कहाँ से जाग उठा १? मुझे स्वयं भी आश्चर्य हुआ। मैंने साथ की कहानी ज्यों-की-त्यों सुना दी । सुचरिता ने प्रसन्न होकर कहा-समझ गई हूँ, आर्य ! मेरे और मेरे पति के निर्दोष-निरीह आचरण से जिस प्रकार राज-कार्य में बाधा पड़ी है, उसी प्रकार प्रजा की शान्ति में भी बाधा पड़ी है। यह दो प्रतिद्वन्द्वी स्वार्थी का संघात है, आर्य, हम लोग तो