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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाणु भट्ट की श्रारम-कथा २७६

  • मैंने सुन रखा है, आर्य, कि तुम नर्म (सरस हास्य) कुशल हो । क्या

छिपाया होगा भला मैंने ! मैंने सुचरिता की उत्सुक अाँखों में अपनी आँखें बैठा दीं । हँसकर बोला-‘सुनी शुभे,आर्य विरतिवज्र ने अवधूत अघोर- भैरव से बताया था कि एक दिन अचानक गुरु ने उन्हें बुलाकर कहा था कि तुम कौल-सिद्ध अवधूत अघोरभैरव के पास चले जाओ। मैं इसका साक्षी हूँ । मैं उस दिन इसका अर्थ नहीं समझ सका था। अाज समझ रहा हूँ । श्रर्य विरतिवद्ध ने गुरु से सारी कथा कही होगी, गुरु ने शिष्य को व्रत-भंग से बचाने का प्रयत्न किया होगा। शिष्य व्याकुल हो गया होगा; पर सहज गम्भीरता के कारण गुरु के बताए नियमों का पालन करने लगा होगा । परन्तु मैं क्षण-भर रुक कर सुचरिता की ओर देखने लगा। उसकी नर्मचटुल मुद्रा बदल गई थी । वह गम्भीर हो गई थी । बोली-“हाँ, कहो आय, मैं नया सुन रही हूँ । मैंने हँस कर कहा--‘हाँ देवि, तो आर्य विरतिवज्र को किसी सरोवर के निकट गुरु ने देखा होगा, जहाँ वसन्त-काल की जन्मभूमि के समान सहकार लताओं का एक अविरल कुज होगा, जो मानो पुष्यों से पुष्प- मय, मधुकरों से भ्रमरमय, कोकिलों से परभृतमय और मयूरों से मयूर भय की भाँति लग रहा होगा। वहीं गुरु का सारा उपदेश भूल कर वे लिखित की भाँति, उत्कीर्ण की भाँति, स्तम्भित की नाई, उपरत के समान, प्रसुप्त की तरह, योग-समाधिस्थ की भाँति निश्चल होकर भी व्रत से चलित हो गए होंगे । गुरु ने आश्चर्य के साथ अपने नैरात्म्य के उपदेश की यह परिणति देखी होगी, शून्य समाधि की यह अवस्था उनके मस्तिष्क में कभी आई ही न होगी । कैसी रही होगी वह शून्य समाधि ! हृदय-निवासिनी प्रिया को देखने के लिए उनकी समस्त इन्द्रियाँ इस प्रकार अन्तःप्रविष्ट हुई होंगी, मानो असह्य विरह-सन्ताप से बचने का उद्योग कर रहे हों । इस प्रकार उनका समूचा शरीर विराटू शून्य का आकार धारण कर चुका होगा; निष्पन्द-निमीलित नयनों में