पृष्ठ:बाणभट्ट की आत्मकथा.pdf/२९

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
१७
बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की आत्मकथा निपुणिका का प्राकृत नाम है। मैं उसके प्राकृत रूप में ही ज्यादा हिला हुआ था । निपुणिका ने अपनी बई-बही अवों से मुझे डा–हला क्यों करते हों, धीरे धीरे बोलो । और फिर उसने एक श्रासन सरकाते हुए कहा-बैठो, पान तो खा लो ।' मैं बैठ गया । . निम्किा का संक्षिप्त परिचय यहाँ दे देना चाहिए । निपुगेका आजकल की उन जातियों में से एक के सन्तान है, जो किमी समय अस्पृश्य समझी जाती थीं ; परन्तु जिनके पूर्व पुरुपों को सौभाग्यवश गुप्त-सम्राटों की नौकरी मिल गई थी। नौकरी मिलने से उनकी सामा- जिक मर्यादा कुछ ऊपर उठ गई । वे आजकल अपने को पवित्र वैश्य-वंश में गिनने लगी हैं और ब्राह्मण-क्षत्रियों में प्रचलित प्रथाअों का अनुकरण करने लगे हैं। उनमें विधवा विवाह की चेन ने हाल ही में बन्द हुई है। निपुगि का का विवाह किमी कान्दविक वैश्य के साथ हुआ, जो भभूजे से उठकर सेठ बना था । विवाह के बाद एक वर्ष भी नहीं बीतने पाया था कि निपुगि का विधवा हो गई। मुझे यह नहीं मालूम कि विधवा होने के बाद निपुर्णिका का क्या दुःख या सुत्र झेलने पड़े थे ; परन्तु वह घर से भाग निकली थी। मुझ से अपने पूर्व जीवन के विषय में उसने इससे अधिक कुछ भी नहीं बताया ; परन्तु उसके बाद की कहानी मेरी बहुत कुछ जानी हुई है। निपुणुिका जब पहले पहल मेरे पास आई थी, उस समय मैं उज्जयिनी में था। वहाँ मैं एक नाटक-मंडली का सूत्रधार था। निपुणिका ने मंडली में भरती होने की इच्छा प्रकट की और मैं राज़ी हो गया था । निपुणिका बहुत अधिक सुन्दरी नहीं थी । उस का रे ग अवश्य शेफा- लिका के कुसुमनाल के रंग से मिलता था ; परन्तु उसकी सब से बड़ी चारुता-सम्पत्ति उसकी श्रख और अँगुलियाँ ही थी । अँगुलि को मैं बहुत महत्वपूर्ण सौन्दर्योपादान समझता हूँ। नटी की प्रणामां-