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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की आत्मकथा जड़वत् बनी रही । तपस्वी अपने चीवर से माता के सिर पर हवा कर रहे थे । उनको कण्ठ वाष्पपूर्ण था। मेरी ओर देख कर ईषत् लज्जित-से होकर वे बोले-‘शुभे, धैर्य से काम लो, इस कमण्डलु में थोड़ा-सा जल ले श्री ।' मेरा जन्म कृतार्थ-सा मालूम हुआ । बिना कोई उत्तर दिए मैं सरोवर से जल ले आई। माता के नेत्रों और मस्तिष्क को पानी से श्राद्ध करने के बाद उन्होंने फिर चीवर से हवा करना शुरू किया। थोड़ी देर बाद फिर मेरी ओर देख कर अाँखें नीची कर ली और बोले-'देवि, माता के तलवों को करतल से अच्छी तरह रगड़ो । मैंने आज्ञा पालन की । थोड़ी देर की शुश्रुषा के बाद माता की आँखें खुले गई । तपस्वी का व्रत इम पर भंग हुआ, संयम का बाँध टूट गया, दीर्घ- काल की रटी हुई भाषा लुप्त हो गई । वाष्प-गद्गद् कण्ट से बोले--- ‘म, ऐ म ! माता का स्नेहोद्वेल हृदय इस बार उफ़न पड़ा । तपस्वी की गर्दन को अपनी क्षीण भुज-लताओं से बाँध वे फफक कर रो पड़ीं । बोलीं-‘हाँ बेटा, म कह कर पुकार । मेरा लाल, मेरी खोई निधि, मेरा अमित कान्ति ! तेरे पिता स्वर्ग में तेरे इस रूक्ष-जटिल रूप को देख कर मुझे बुरी तरह डाँटेंगे, मेरे लाल ! मैं अधिक नहीं बचें गी । बोल, एक बार माँ कह कर पुकार । मैं तेरी गोदी में सुख की नींद सो जाना चाहती हूँ, मेरे प्राण ! तपस्वी इस बार सम्हाल न सके । फूट-फूट कर रो पड़े---‘ना माँ, मैं तेरी गोदी में लौट चलू गइ, मुझे एक बार गुरु से अाज्ञा ले लेने दो । माता का चेहरा लाल हो गया । एक बार फिर करुणा में वीर रस को अचानक प्रादुर्भाव हुआ। गरज कर बोलीं---‘पापण्ड है वह ढोंगी, जो माता से बढ़कर अपने को गुरु मानता है। तू मेरा है, मेरे रक्त-मांस का टुकड़ा है, दूसरा कौन तेरा गुरु है । माता का दुर्बल शरीर इस उत्तेजना को बर्दाश्त नहीं कर सका। वे फिर संज्ञाहीन हो गई । अब की बार मैं अपने को सँभाले न सकी। चिल्ला कर रो पड़ी--‘हा अम्मा, अब मेरा सहारा कौन