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बाण भट्ट की आत्म-कथा

३७४ बाण' भट्ट की आत्मकथा सुचरिता बोली-चतुर हो आर्य, प्रियभाषी हो आर्य' आधी बात सुनकर निर्णय करना बुद्धिमान्य का लक्षण है। सब ने मेरी कहानी आधी ही सुनी है, और यह आधी कहानी इस नगर में नाना भाव से विकृत हुई है। पर तुम पूरी सुनना चाहते हो । निपुर्णिका आधी ही जानती है ; परन्तु उसने सन्देह नहीं किया और मेरे प्राच- रण को पाप नहीं बताया। वह सहृदय थी। मैं तुम्हें पूरी सुना रही हूं, अर्थ ! जिस समय मैं इस प्रकार अपने-आप को संयम की रश्मियों से खींचने का प्रयत्न कर रही थी, उसी समय मेरी सास देर तक मुझे लौटती न देख खोजती हुई उधर ही आई। उन्होंने उस रक चीवर- धारी मुनिकुमार को देखते ही कातर चीत्कार किया---'अरे मेरा लाल, मेरा अमित कान्ति ! और अर्द्धमूर्छित-सी होकर तपस्वी के पास गिर गई । मुनिकुमार के वैराग्य-कठोर मुख पर करुण भाव की रेखाएँ दिखाई देने लगीं। उन्होंने कमण्डलु एक तरफ़ रख दिया और धीर भाव से माता के सिर को गोद में लेकर दबाना शुरू किया। अत्यन्त मृदु-कोमल करठ से बोले–‘आयें, संयत होओ, वृथा उद्विग्न क्यों हो रही हो १३ माता ने करुण नेत्रों से पुत्र की ओर देखा, बोलीं-बेटा, तू मुझ अभागी को रोती-कलपती छोड़ कौन-सा धर्म कमा रहा है ? यह देख, वह तेरी ब्याहृता बहू है। अभागे, स्वर्ग में ऐसी कौन-सी अप्सराएँ मिलती होंगी, जिनके लिए तु इस मणि कांचन-प्रतिमा को छोड़कर तपस्या कर रहा है ? माता की इस बात से मैं जितनी ही इतबुद्धि बन गई, उतनी ही लजित भी। यह भी कोई बात की बात है ! तपस्वी किन्तु गम्भीर बने रहे। उनके तेजोमण्डित मुख-मण्डले पर निर्विकार भाव ज्यों-का-त्यों बना रहा। माता ने कातर कण्ठ से अपना दुखड़ा सुनाना शुरू किया । पुत्र ने धीर भाव से सुनकर कहा-

  • संसार दुःख है, आर्ये । विचित्र देशा थी ! समस्त जीवन के नैराश्यों

और कष्टों को साक्षात् प्रतिमा माता फफक-फफक कर अपनी करुण