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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की अात्म-कथा में वृन्तसमन्वित वकूल फल के आकार का कमण्डलु था और दूसरे में लाल लाल छोटी-सी जपमाला थी, जो मदन-दाह के शोक से व्याकुल रतिदेवी के सिन्दूर के उपलिप्त-सी दिख रही थी । अगुल्फ रक्त चीवर में समाच्छादित उस तरुण तपस्वी को देखकर मैं मन्त्रमुग्ध-सी खड़ी रह गई। कौन है यह ब्रह्मचर्य की विजय-पताका, धर्म का यौवन- काल, वाग्देवी का वेश-विन्यास, सर्वविद्याअों का स्वयंवृत पति, समस्त ज्ञान का मिलन-तीर्थ, शोभा का समुद्र, गुणों की अाकर भूमि, कीर्ति का कैलास, छवि का स्रोतस्वान्, प्रेम का उद्ग्म-विहार ! 'तुम नारायण की मूर्ति हो अार्य ! मैं तुमसे सत्य कहती हूँ, उस दिन मेरे हृदय में सौ-सौ युगों के कवि एक साध गरुण राग छेड़ बैठे, जैसे शत-शत जन्म मुखरित होकर कहना चाहते हों कि यहीं मेरे जीवन की सार्थकता है । कितना विराट हैं विधाता का सौन्दर्य-भाण्डार! सुना था, भगवान् कुसुमसाय की रचना करने के बाद उनका भण्डार निःशेष हो चुका था, तो फिर इस अपूर्व सौन्दर्य-राशि को बनाने का साधन कहाँ से मिला उन्हें ! निश्चय ही वह भारडार अपूर्व है, विराट है ! उस समय अाश्चर्य के मारे मेर; श्वासोच्छवास बन्द हो गया था, पलके उद्गति हो चुकी थीं, निर्निमेष नयन से मैं साभिलाष होकर उस रूप-माधुरी का पान कर रही थी। उन्होंने मेरी अोर देखा। मेर। जन्म-जन्मान्तर मानो कृतार्थ हो गया । मैं कुछ माँगती हुई-सी, सर्वस्व निछावर करती हुई.सी, सर्वात्मना उनकी रूप-राशि में विलीन होती हुई-सी, शरणागता होती हुई-सी, स्तभिता-चित्रलिखिता-उत्कीर्णा- संयता-मूर्छिता-विधृता की भाँति, निरुद्धचेष्ट हो गई। न-जाने कौन- सी जड़िमा मेरे सारे शरीर-अवयवों को निष्क्रिय बना गई, इन्द्रिय- व्यापार को रुद्ध कर गई, नयन-पक्षों को अचंचलता दे गई और मेरे मन को अपरिचित अननुभूत मधु-रस में डुबो गई । मैं ठीक नहीं बता सकती कि उन्हें इस प्रकार देखने के लिए किस बात ने मुझे प्रेरित