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बाण भट्ट की आत्म-कथा

२५६ बाण भट्ट की आत्म-कथा पुत्री, धर्म की रक्षा अनुनय-विनय से नहीं होती, शास्त्र वाक्यों की संगति लगाने से नहीं होती; वह होती है; अपने को मिटा देने से । न्याय के लिए प्राण देना सीखो, सत्य के लिए प्राण देना सीखो, धर्म के लिए प्राण देना सीखो । अमृत के पुत्रो, मृत्यु का भय माया है ! एक सहस्र कण्ठों ने दीर्घदीर्घायित स्वर में प्रतिध्वनि की-‘मृत्य का भय माया है ! उस महाध्वनि ने स्थाएवीश्बर के दुर्भद्य प्रस्तर- भित्तियों को चीर कर पर-प्रान्त तक हलचल मचा दी। भीड़ बढ़ने लगी और रह-रह कर अाकाश को विदीर्ण करके एक ही स्वर गूज उठने लग—मृत्यु का भय माया है। विराट पट-मण्डप उस फीत जन-सम्मई को धारण करने में असमर्थ हो गया। महामाया ने त्रिशूल उठाकर जनता को शान्त करना चाहा; परन्तु उनकी आवाज़ उस गगन-विदारी महाध्वनि के सामने नगण्य थी। भीड़ राज- माग, गवाक्षों, वृक्षों और ध्वजदण्डों को आच्छन्न करने लगी। धीरे-धीरे सर्वत्र यह प्रवाद फैल गया कि सभा में साक्षात् त्रिशूलधारिणी पार्वती का आविर्भाव हुआ है। उन्होंने आज्ञा दी है कि अन्यायी राजा का ध्वंस कर दो । नागरिकों ने महामाया के सन्देश को क्या से क्या बना दिया ! केवल एक स्वर रह-रहकर बायु-मएल को कम्पित करता रहा–'अमृत के पुत्रो मृत्यु का भय माया है ! सहस्र कण्ठों ने इसकी सहस प्रकार से व्याख्या की । वृद्ध सभापति ने महामाया की ओर देखकर कातर भाव से प्रार्थना की-भवति, आयें, अपका कथन सत्य है; पर क्षुब्ध प्रजा इस अग्नि-वाणी को अयोग्य पात्र हैं। श्राप इन्हें शान्त करे । आचार्य भवु पाद का पत्र सामयिक उपचार के लिए है, वह शाश्वत धर्म का सन्देश लेकर नहीं आया है। भवति, अर्ये, क्या यह सत्य नहीं है कि इस समय राजशक्ति के साथ विद्रोह करके जन-संघटन करते-करते इतना समय लग जायगा कि म्लेछों की वाहिनी इस देश को जला कर कपोतकर भस्म में परिणत कर देगी १ आयें,