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बाण भट्ट की आत्म-कथा

वाणु भट्ट की अमे-कथा २४१ कंठ वापरूद्ध था, उसे बोलने में थोड़ा प्रयास करना पड़ा ; परन्तु उस के प्रदीप्त मुख-मण्डल से अानन्द उल्लसित हो रहा था । आद्र स्मित के साथ उसने कहा--आर्य, नारायण मनुष्य के बाहर तो नहीं रहते हैं न १ तुम प्रसन्न हो, तो निश्चय ही, नारायण प्रसन्न हैं । तुम नारायण के ही तो रूप हो, अार्य ।' फिर वह अकारण उन्मना हो गई । सिक्त श्रआँखों से वासुदेव की ओर देखकर अपने-ग्राप से ही कहने लगी----‘मन बड़ा पापी हैं, गुरु देव, कब वह मनुष्य को नारायण के रूप में देखेगा ? क्षण-भर तक खोई-सी रहकर उसने मेरी और में है किया-अधरों पर सरल स्मित-रेखा खेल रही थी, कपील पाल स्फुरित हो रही थी और अखें अश्रुपूर्ण थीं । मेरी ओर देखकर उसने पूछा--- ‘भट्टिनी का क्या करोगे, शार्य ? मैं क्या उत्तर दें, कुछ सूझा नहीं। वातावरण भक्ति और श्रद्धा से इस प्रकार प्रयाप्त था कि मुँह से बरबस निकल गया--‘नारायण करेंगे, देवि, हम तो निमित्त-मात्र हैं । सुचरिता ने आश्वस्त होकर कहा–'हाँ अार्य, नारायण ही इस नाव के कर्णधार हैं । हम तो तूफान देखकर बेकार ही हाय-हाय करनेवाले जीव हैं । मन क्यों नहीं समझ पाता, आर्य, कि वह किसी कार्य का उत्तरदायी नहीं है ? वासुदेव के रहते इतना वृथा सोच क्यों करता हैं वह १ फिर वह देर तक चुपचाच बैठी रही । रात अधिक बीत चुकी थी। मैंने चलने की अनुमति माँगी । सुचरिता की अनुमति देने में व्यथा हुई ; पर कुछ बोली नहीं। बाहरी फाटक तक आई और अन्तिम नमस्कार के बाद कातर स्वर में बोली-“कल सूर्यास्त के पूर्व आर्य के दर्शन पा सकेंगी न ? मैंने उत्साह के साथ कहा-'अवश्य, देवि । और कुमार कृष्णवर्धन की अतिथिशाला की ओर चल पड़ा। रास्ते में मेरा मन बराबर सुचरिता के विषय में ही सोचता रहा । मैं अभी तक उसका पूरा परिचय नहीं पा सका हूँ ; पर जितना पा सका हूँ, उतने पर सहज ही समझ सका हूँ कि वह श्रद्धास्पद महिला है । परन्तु