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बाण भट्ट की आत्म-कथा

आण भट्ट की आत्मकथा १३ पात्र बन गया था । राजकन्याओं का स्थान जुलूस के ठीक मध्य भाग में था। यहाँ का नृत्य-गान संयत, गम्भीर और मनोहारी था। एक श्रोर मेरी, मृदंग, पटह, कोहल और शंख के निनाद से धरित्री फटी जा रही थी और दूसरी श्रोर राजकन्याओं के कपोल-तली के अान्दोलित मणिमय कुएइल और उत्पल-पत्रों में जगमगाती हुई शिविकाएँ बीच- बीच में मनूपुर चरणों की ईषत् झंकार से मुखरित हो उठती थीं। सब के पीछे राजा के चार णु और बन्दी लोग विरुद-गान करते हुए जा रहे थे । उनमें से कुछ तो श्रानन्दातिरेक में ऐसे मदमस्त थे कि मुख से ही एक विशेष प्रकार के. वाद्य का काम ले रहे थे । जुलूस के पार होने में दो दण्ड समय बीत गया और मैं निश्चल प्रतिमा की भाँति इतनी देर तक खड़ा रहा । जब जुलूस निकल गया, तो मैं जैसे नींद से जागा । नगरवासियों से पता चला कि महाराजाधिराज श्री हर्षदेव के भाई कुमार कृष्णवर्द्धन के घर पुत्र-जन्म हुश्रा है और आज उसका नामकरण-संस्कार होने जा रहा है। मैंने जब यह सुना, तो क्षणभर के लिए मेरा चेहरा उतर गया | मुझे अपनी दशा याद आ गई । एक ऐसे भाग्यवान है। जिनके जन्म पर इतना उत्सव मनाया जा रहा है और एक मैं अभाग। हूँ, जो देश-विदेश मारा-मारा फिर रहा हूँ ! मुझे मेरा जन्म याद आया। मेरी माता मेरे जन्म के कुछ वर्ष बाद ही परलोक सिधार गई थी । पिता उस समय वृद्ध हो चले थे। अपने अध्ययन-अध्यापन, वजन याजन के अनेक विध कर्मबहुल जीवन में उन्हें मेरे पालन-पोषण का गुरु भार भी सँभालना पड़ा था | स्नेह बड़ी दारुण वस्तु है, ममता बड़ी प्रचण्ड शक्ति है; क्योंकि वृद्ध पिता के थके जीवन में भी एक और | | यह वर्णन कादम्बरी में शुकनासे के पुत्रोत्सवकालीन यात्रा- वर्णन से मिलता है।