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बाण भट्ट की आत्म-कथा

कुण्डल के सिवा और कोई भी अवैध्य अलंकार नहीं था और प्रक्षेप्य अलंकार तो उसने पहने ही नहीं थे--मंजीर, नूपुर था कनक मेखला, कुछ भी नहीं । अारोप्य अलंकारों पर उसकी विशेष रुचि जान पड़ती थी; परन्तु उनमें भी सिर्फ एक सुवर्ण-हार शौर एक मालती-माला के सिवा कुछ नहीं दिखते थे । मालती-मला के लिए सम्भवतः सुचरिता का रंग ही उचित अलंकार था। मैंने कभी मालती-माला को इतना मनोहर नहीं देखा । मुझे बार-बार वहमिहिर की बात याद आती रही और मैं उनकी सहृदयता पर मुग्ध हुए बिना नहीं रहा। उन्होंने ठीक ही कहा है, स्त्रियाँ ही रत्नों को भूषित करती है, रत्न स्त्रियों को क्या भूचित करेंगे ! स्त्रियाँ तो रत्न के बिना भी मनोहारिणी होती हैं । परन्तु स्त्री का अंग-सग पाए बिना रत्न किसी का मन हरण नहीं करते । आज यदि अाचार्य वराहमिहिर यहाँ उपस्थित होते, तो और भी आगे बढ़कर कहते--धर्म-कर्म, भक्ति-ज्ञान, शान्ति-सौमनस्य कुछ भी नारी का संस्पर्श पाए बिना मनोहर नहीं होते-नारी-देह वह स्पर्श-मणि है, जो प्रत्येक ईंट-पत्थर को सोना बना देती है। | मरकत-शलाका की भति तन्वंगी सुचरिता दीप-दान के बाद हाथ जोड़कर गुरु के सामने बैठ गई । फिर विविध उपचारों के साथ नारायण की पूजा शुरू हुई । पूजा समाप्त होने पर वेंकटेश भट्ट आनन्द-गद्गद स्वर में नारायण की स्तुति गाने लगे। देखते-देखते संयवक वाद्य गम-गम करने लगा ; कांस्य, कोशी और करताल झन झना उठे । नारायण की स्तुति सहक्ष-सहस्र नर-नारियों के कण्ठों से उमड़ पड़ी। मुझे ऐसा लगा कि मैं किसी दूसरे लोक में पहुँच गया तुल० वराहमिहिर (वृहत्संहिता, ७४-३)-- रत्नानि विभूषयन्ति योषा भूष्यन्ते वनिता न रक्षकान्स्था । चत वनिता इन्स्यरवा नो रक्षानि विनगिनांगसंगात् ।।