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बाण भट्ट की आत्म-कथा

२३० बाए भट्ट की आत्मकथा शक्ति-तत्त्व का । भागवत सम्प्रदाय से तो इनका दूर का सम्बन्ध भी नहीं है । और यह पद्म तो किसी प्रकार वहाँ नहीं चल सकता, क्योंकि पद्म के साथ वज्र होना चाहिए। ऐसा होता, तो सौगत तन्त्र ही इसे मान लेते; परन्तु यह तो अद्भुत मिश्रण हैं । मगध का साधारण मनुष्य भी इस अनुष्ठान का विरोध किए बिना न रहता; परन्तु कान्य- कुब्ज्ञ विचित्र देश है ! यहाँ बाह्य चारों में तो तिल-मात्र परिवर्तन भी नहीं सहन किया जाता; पर धार्मिक अनुष्ठान में प्रतिदिन नए- नए उपादान मिश्रित होते रहते हैं ! जो हो, है यह बहुत मनोरंजक अनुष्ठान । मुझे और भी अानन्द इसलिए अनुभव हो रहा था कि ये ही वेंकटेश भट्ट निपुणिका के भी गुरु हैं, और सम्भवतः इस प्रकार के अनुष्ठान की आदि-संचालिका भी वही होगी । परन्तु उसने कभी भी मुझसे इसकी चर्चा क्यों नहीं की ! होगा कुछ कारण । मैंने और भी ध्यान में चक्र को देखा, केन्द्र में जहाँ पद्म था, उसके चारों ओर सन्दूर से एक गोल चक्र अंकित था। इस साधना का वज्र यही था क्या है पद्म के ऊपर ताँबे का घट स्थापित था । घट के ऊपर श्रम के अल्लव थे और उनके भी ऊपर एक ताम्र' पात्र में जौ भरा हुआ था । अभी दीप-स्थापने की क्रिया चल रही थी। आचार्य की दाहिनी शोर एक वृद्ध पुरोहित मन्त्रोच्चार कर रहे थे और एक युवती स्त्री उनकी बताई हुई विधि से क्रिया कर रही थी। मैंने पहले अनुमान में स्थिर केया कि वही सुचरिता होगी । फिर पुरोहित के दीप-दान-कालीन बैंकल्पवाक्य से मेरा अनुमान सत्य सिद्ध हुआ । सुचरिता नीचे से ऊपर तक एक शुभ्र कौशेय वस्त्र से समावृत थी । उसका मुख गुरु की शोर था, इसलिए दूर से मैं ठीक-ठीक नहीं देख सका । उसका शरीर बहुत पतला था और श्वेत वस्त्र से आच्छादित होने के कारण नारायण की स्मित-रेखा के समान दिखाई दे रहा था । उसकी प्रत्येक क्रिया में एक प्रकार का गौरव था। प्रदीपन्यास का संकल्प पठित