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बाण भट्ट की आत्म-कथा

वाण भट्ट की आत्मकथा २०३ तो भी देवी हो—इस कलुई-पेकिल संसार-सागर को प्रफुल्ल पद्मिनी, इस धूलिधुसर वनभूमि की मालती-लता ! लाख-लाख सामान्य बालि- काएँ अाज अायवत्त को महानाश के गह्वर में गिरने से नीं बचा सकतीं---तुम बचा सकती हो । मेरा क्षोभ मेरे चेहरे पर ज़रूर प्रति- फलिन हुआ होगा ; क्योंकि भट्टिनी ने मेरी अोर फिर कर कई बार देखा । प्रसाद देते हुए उन्होंने ज़रा दुलार करते हुए कहा-बुरा मान गए भट्ट !! मैने करुण भाव से उनकी ओर देवा । भट्टिनी का चित्त झा ने कुछ प्रसन्न था। उनमें अाज कुछ अप्रत्याशित लीला अआ गई थी। इस समय उन्हें जरा भी चिन्तित होने देना अपराध था । परन्तु भट्टिनी को मेरे उत्तर की अपेक्षा नहीं थी। बोलीं-‘बुरा न मानीं । तुम्हें मुझे देवी समझने में ग्रानन्द मिलता है, तो मैं देवी ही सही । यह वरदान लो |--कहकर भट्टिनी ने मेरी थाली में अपने हाथ का बनाया हुआ मिष्ठान डाल दिया। मैं हँसा और भट्टिनी भी मन्द स्मित के साथ हैं स पी ।