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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की आत्म-कथा १८७ ‘ना अर्य ! ‘क्यों रे १> मैंने बता दिया निपुर्णिका को वचन दे चुका हूँ। बाबा ने कहा-साधु ! तो देवी की स्तुति कर सकता है ? कराला- देवी की स्तुति ? मैंने सिर झुकाकर कहा---'हाँ, आर्य !! अवधूत ने कहा-“अभागा, तू देवी की बलि हो रहा था, देवांगनाअों ने तेरी आरती की थी और शिवाशों ने मंगल-वाद्य बजाया था; परन्तु तेरा भाग्य अप्रसन्न धा । तू ने देवी की पिपासा शान्त नहीं की, अब उनका असन्तोष तो दूर कर । देव, देवी के व्यायाम मनोहर शरीर का वर्णन कर तो भला ।' उपाय न था । मैंने थोड़ा सोचकर पढ़ा। वाहृत्क्षेपसमुल्लसत्कुचतटं प्रान्तस्फुटरकन्चुकम् गंभीरोवरनाभिमण्डल गलत काञ्चीताशुकम् पावत्या महिषासुरव्यतिकरे व्यायामरम्यं वपुः पर्यस्तावधिबधबंधुरलसकेशोच्च पातु वः ॥१ अवधूत ने डाँट- ‘पशु है, अभागा ! इसी को व्यायाम-रम्य वपु कहते हैं ? और सुना । मैंने दूसरा सुनाया :--- चतुर्दिक्षुक्षिपस्याश्चलितकमलिनी चारुकोषाभिताम्र भद्रं ध्यानानुयातं झटिति वलयिनो मुक्तवाणिस्य पाणः घरड्याः सयापसव्यं सुररिपुषु शरान प्रेरयया जयन्ति त्रु यन्तः पीन भागे स्वनवलनभरात संधयः कंचुकस्थे । अवधूत हँसे । बोले-‘तुझसे नहीं होगा । उठ, भाग यहाँ से । तुल०-वडीशतक-७६