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बाण भट्ट की आत्म-कथा

मणि भट्ट की आत्मकथा रिक्त वहाँ और कुछ नहीं थी । करालादेवी की मूर्ति सचमुच ही कराल थी। उनकी लोल जिल्ला एक ही साथ विश्व को ग्रास करती हुई और उसका त्राण करती हुई भी जान पड़ती थी। उनके गले में विशाल मुण्डमाले गुल्फों तक लटक रही थी । कराजा देवी के सामने वही रहस्य मयी स्त्री जानुपात-पूर्व क खट्टी थी और उससे भी अधिक श्रशिव वेशधारी एक पुरुष ताज़ा चर्बी से वन कर रहा था । अाहुति पड़ने के साथ ही साथ अग्नि को विंगल-लोले जिह्वा विकराल-भाव से लपक पड़ती थी और क्षण-भर के लिए वायु-मण्डल दुर्गन्धि से और नभो- मण्डल पिंगल प्रकाश से व्याप्त हो जाता था । कुराड़ के चारों ओर नर-कपालों में भिन्न-भिन्न हवनीय सामग्री रखी हुई थी। मेरा मस्तिष्क घृणा और जुगुप्सा से भर गया; परन्तु फिर भी आश्चर्य की बात है कि मैं खिंचता ही गया । अन्त में मैं यूपकाष्ठ से सटकर खड़ा हो गया । साधक पुरुष ने विकट फूत्कार के साथ संकल्प पड़ा और मैं चित्र-लिखित की तरह जहाँ का तहाँ खड़ा कौतूहल के साथ सब-कुछ देखता रहा। संकल्प-वाक्य से मालूम हुआ कि साधक का नाम अघोरघण्ट है और साधिका का चण्डमण्डना । साधिका ने कुछ मुद्रा का प्रदर्शन करते हुए एक लाल कर्णिकार की माला मेरे गले में डाल दी । फिर उसने सुरीले कण्ठ से ध्यान-मन्त्र पढ़ाः चण्डेण्डनिशुम्भमनमथनारयुष्णोक्त प्रिया उतालोद्धतताण्डवाहतनभो विध्वस्तताराराणा । पिण्डे पोशनाडिकार्चितपदा षट्चक्रवक्रासना मुण्वस्त्र परिवेष्टिताम्रपटा सिद्धयै करालाऽस्तु वः ॥ मे मस्तक दुर्गन्धि से छिन्न हो रहा था, नसे फूल गई थीं और कटु- धूम से अखे फटने को आ चुकी थीं; परन्तु यह विचित्र साधना, अव्या- हत गति से चल रही थी । धीरे-धीरे मेरी चेतना खोने लगी; परन्तु आश्चर्य यह है कि मैं गिरा नहीं और संवेदन-शून्य की भाँति सब-कुछ