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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाणु भट्ट की आत्म-कथा १७७ बार अपने चारों ओर ध्यान से अवलोकन किया, फिर जमुहाई लेते हुए चुटकी बजाई-त्रिपुर भैरवी ! त्रिपुर भैरवी । अब उन्होंने बड़े स्नेह से भट्टिनी को अपनी ओर खींचा, चिबुक पकड़कर उनका मुख ऊपर उठाया और बोलीं--‘तो यही वह स्वामिनी है ! है तो स्वामिनी होने योग्य | अाह, कैसा अमृतसावी मुख है ! श्रा, बेटी, हम अलग चलें । फिर मेरी ओर मुख करके बोलीं-‘जा बेटा, ते निउनिया को खोज ले श्रा, तेरी स्वामिनी यहीं रहेगी । चिन्ता मत कर, तुझे अवधूत- गुरु का प्रसाद प्राप्त है, तेरी कुल-कुण्डलिनी जाग्रत है। मैंने प्रणाम किया और धीरे-धीरे गंगा के किनारे की ओर अग्रसर हुश्रा ।। मैं दूर तक निकल गया; पर निपुणिका का कोई चिह्न नहीं मिला । एक-एक बार मेरे मन में आता था कि इस प्रकार निपुतिका को खोजना निरी बालिशता है। डूबा हुआ आदमी कहीं इस प्रकार पाया जाता है। पर हृदय में विश्वास था कि निपुणिका जीवित अवश्य है और वद्द मिलेगी भी ? कुछ दूर निकल जाने के बाद मुझे भट्टिनी की चिन्ता होने लगी। अभी तक उन्होंने कुछ आहार नहीं किया है। मैं स्वयं निरन्न हूँ ; पर मैं तो इस प्रकार रहने का बहुत अभ्यस्त रहा हूँ। अपने वारे जीवन में मैंने यही साधना तो की है----“करतल भिक्षा तरुतलवासः तो मेरी सिद्धि ही है। परन्तु भट्टिनी की बात याद आते ही मेरा हृदय टूक-टूक होने लगा । यदि भोजन किसी प्रकार वहाँ पहुँचा भो सका, तो महावराह कहाँ हैं ? इस समय भट्टिनी निश्चय ही अपने परम उपास्य की बात सोच रही होंगी । जिस समय उन्हें मालूम होगा कि मैंने अपने हाथों उनके परम आरा- ध्य को डुबाया है, उस समय वे मुझसे निश्चय ही घृणा करने लगेगी । हाय अभागा बाण, तेरे लिए भड़िती का विश्वास ही सबसे बड़ी सम्पत्ति थी ; पर तू उसे भी खो देना चाहता है ! आगे बढ़ना बेकार है। दूर तक नील जल-स्रोत चमक रहा है। दीर्घ शरकान्तार झनझना