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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की आत्मकथा । लाले बने हुए केरल-कामिनी के कपोल-तल की शोभा आहरण करने वाले बाल-तरु-पल्लव ऐसे लगते हैं, मान लीला-लोल वन देवताओं के चरणलिक्तक ( महावर ) के रंग से लाल हो गए हों; कहीं ऐसे अनेकानेक लता-मण्डप विराज रहे हैं, जिनके तल देश शुक पक्षियों के कुतरे हुए दाडिमी फल के रस से अद्र हो गए होते हैं, जिनके भीतर चपल बानरों द्वारा कम्पिल्ल ( नारंगी ) वृक्ष के फल और पल्लव गिरे होते हैं, जो निरन्तर पुष्प-रेणु के झड़ते रहने से रेणुमय हो गए होते हैं, और जिनके भीतर पथिक लोग लवंग-पल्लवों की शय्या बिछा कर विश्राम कर लेते हैं । जब हमारी नौको इन पहाइयों के तलदेश से चलने लगती थी, तो मेरा चित्त छिन्न-रज्जु वृषभ की भाँति भाग पड़ता था और मदसावी गजयूथों, निझर-मुखर गिरि-कन्दरा, नीरन्ध्र नील निचुले (बेत) कुंजों और एलालवंग तथा तमाल के झुरमुटों में दौड़ पड़ता था । चरणार्दि-दुर्ग (चुनार को विन्ध्याटवी-चेष्टित गंगा ने तीन श्रोर से घेर लिया है । यहाँ से एक ही दृष्टि में मैंने दूर तक फैले हुए बदरी- वृक्षों के झुरमुट, वनपनस के झाड़ और सीताफलों की काली वनराजि देखी । एक बार जी में आया कि कूद पड़े इस वनदेवताओं के आवास में, इस उन्मद मयूरों की विहारस्थली में, इस करेणु-सेवित कान्तार में, इस निर्भर-मुखर विन्ध्याटवी में । दुर्ग के अपर प्रान्त में घाट था। नौका वहीं रोक दी गई थी। मैं बड़े उदास भाव से विन्ध्याती की ओर देख रहा था, क्योंकि उसमें धंस पड़ने को मैं स्वतन्त्र नहीं था। इसी समय मेरी साथवाली नौका का एक सैनिक युवक मेरे सामने आया और जानुपातपर्व के प्रणाम करके बोला-'अर्थ, अमु- मति हो, तो एक प्रयोजनीय विषय में कुछ निवेदन करू १। मैंने युवक को ध्यान से देखा। इकहरा शरीर, चौड़ी छाती, बड़ी-बड़ी आँखें और सहज आनन्दमय मुख-मण्डल | देखकर अहैतुक आनन्द-