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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की आत्मकथा उन्हीं का प्रसाद है। मनुष्य क्या कर सकता है ?? | क्षण-भर रुक कर भट्टिनी बोली-भट्ट, मुझे बहुत पहले मर जाना चाहिए था । जिस दिन नगरहार के मार्ग में प्रत्यन्त दस्युओं ने मुझ पर अाक्रमण किया था, उस दिन चुने हुए दो सौ विश्वस्त सेवक मेरी पालकी के साथ थे । पितामह के समान पूज्य और प्रबल परा- क्रान्त दिल्यमेन का विश्वास-भाजन सेवक धीर नापित मेरे साथ था। डाकुओं ने एकाएक आक्रमण किया था । धीर अन्त तक मेरे ऊपर छत्र की भाँति छाए रहे । मेरे दो सौ चीर देवपुत्र का नाम ले- लेकर श्वेत रहे । एक प्रहर तक वे लड़ते रहे । जब तक उनके शरीर में एक बंद भी रक्त बचा था, तब तक किसी दस्यु को उन्होंने मेरी पालकी के पास नहीं आने दिया । मैं कम्पमान वक्षःस्थल पर पत्थर रख कर त्राहि-त्राहि करती हुई अपने विश्वस्त सेवकों को मरण-दृश्य देती रही । धीर तब भी गला फाड़ कर देवपुत्र जय-निनाद करता रहा । मरते समय तक वह यही कहता रहा कि निर्भय रहो बेटी, ये पापी तुम्हारी छाया नहीं छू सकेंगे । पचासों दस्यु उस पर चींटी की तरह चढ़ दौड़े। उन्होंने उसके वस्त्र और केश नोंच डाले; पर वह पालकी पर से नहीं हटा नहीं हटा । उसके रक्त से मेरी पालकी भीग गई । जब उसने अन्तिम वार चिल्ला कर कहा कि निर्भय रहो बेटी, उस समय मैं अपने को सँभाल न सकी । पालकी से निकल कर मैंने वृद्ध को पालकी के भीतर खींच लेना चाहा ! तब तक उसके तीन खएड हो चुके थे । मुझ अभागी को उसके चरण ही मिले । मैं कटे रूख की तरह गिर पड़ी । क्यों भट्ट, मैं उसी समय क्यों नहीं मर गई ११ थोड़ी देर चुप रहने के बाद भट्टिनी निपुणिका की और फिरीं । उसकी अाँवों से आँसू का निर्भर बह रहा था । भट्टिनी बोलीं- मत निउनिया, मैं बहुत रो चुकी हूँ । नगरहार से पुरुषपुर, पुरुषपुर से जालन्धर और फिर और न-जाने कहाँ-कहाँ मुझे दस्युओं के साथ