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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की आत्म-कथा वत, परम सौगत देव पुत्र के प्रति इस देश में भक्ति का स्त्रोत भी सूख नहीं गया हैं। जिस दिन देवपुत्र को पता लग जायग? कि आप कहाँ है, उस दिन यमराज भी उनका मार्ग नहीं रोक सकेगा । आज दुर्भाग्य विडंवित देव पुत्र शोक से हतबुद्धि होकर न जाने कहाँ पड़े हुए हैं; परन्तु विश्वास रखिए, एक-ने-एक दिन ऐसा अवश्य अायगा, जब ब्राह्मणों और श्रमणों के रक्षक, मन्दिरों और देवमूर्तियों की आशा- भूमि, तरुणियों और बृद्धाशों के प्रतिष्ठा-रक्षक देवपुत्र अापका संवाद पायँगे । उस दिन मार्ग की बड़ी से बड़ी बाधा छत्रक-दएड की भाँति टूट जायगी, भयंकर से भयंकर व्यूह कचे कलश की भाँति छितरा जायेंगे। उस दिन फिर एक बार समुद्र की भाँति अप्रमेय देवपुत्र- वाहिनी के विक्षोभ से धरती कलमला उठेगी और आज चोर की भाँत भागने वाला ब्राण भट्ट इस दिन प्रलय-यूर का बाँध बनेगा । देवि, बाण भट्ट कर्त्तव्य से कभी नहीं चूकेगा, अाप अश्वस्त हो ।' | भट्टिनी की अाँखों में आँसू आ गए। उन्होंने छिपाने के लिए मह फेर लिया। फिर अचल से आँखें पोंछ कर मेरी ओर देखने लगीं । उनके मुख पर तब भी गीली-गली हँसी सटी हुई थी । उस हँसी का अर्थ मैंने समझा । उसमें कृतज्ञता थी; पर भरोसा नहीं था। मानो वह हँसी ही उच्च स्वर से भट्टिनी के निगूढ़ मनोभावों को प्रकट कर रही थी--‘आश्वासन दे रहे हो, इसके लिए कृतज्ञ हूँ; पर तुम्हारी प्रतिज्ञा की रक्षा दुःशक्य है । मैं क्षणभर तक हतचेता होकर भट्टिनी की करुण-गाम्भीर मुख-भंगिमा को देखता रहा। मैं उनके मर्म की व्यथा जान लेना चाहता था; परन्तु एक सहज अनुभाव से उनका पवित्र मुख-मण्डल कुछ इस प्रकार अाच्छादित था कि न तो मैं उसे अतिक्रम कर उनके मर्म के भीतर देख ही सकता था और न साहस- पूर्वक पूछ हीं सकता था। निपुखिका ने मेरी सहायता की । उसने वेदना-भरी कातरता के साथ कहा---'भट्ट, तुम बहुत ऊपर-ऊपर चक्कर