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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की आत्म-कथा । १२५ कम जानता हूँ। परन्तु मुझे मन-ही-मन यह गर्व अवश्य हो रहा था कि भट्टिनी-विषयक जिज्ञासा का प्राप्त व्यक्ति मैं ही माना जा रहा हूँ। मैंने कुमार से अपनी जानी हुई कोई भी बात छिपाई नहीं, क्योंकि मुझे पूर्ण विश्वास था कि कुमार हमारे अकृत्रिम मित्र हैं । मैंने बताया कि जब कुमार से मिलकर मैं भट्टिनी के पास लौट आया, तो क्या- क्या हुआ । भट्टिनी उत्सुकतापूर्वक मेरी प्रतीक्षा कर रही थी और बेतरह चिन्तित हो गई थीं । जब मैंने उनसे कहा कि कुमार कृष्ण- वर्धन ने कहा है, देवपुत्र-नन्दिनी को अपने भाई का वह अनुरोध तो पालन करना ही होगा कि वे शिविका से गंगा-तट तक जायँ, तो भट्टिनी की नीलोत्पल के समान बड़ी-बड़ी आँखों से अत्यन्त निर्मल बड़े-बड़े अश्रु-बिन्दु झर पड़े। उन स्थूल-स्थल अश्रु -बिन्दुओं को देख कर ऐसा भान होता था, मानो उनके अन्तस्तल की चित्त-शुद्धि को लेकर ही ये बाहर आ रहे हैं, इन्द्रिय-समूह के प्रसाद ही मानो वणित हो रहे हैं, तपस्या के रस ही सवित हो रहे हैं । अखिों की धवल प्रभो ही मानो द्रवित होकर गिर रही है, पवित्रता की मेघ-माला ही मानो बरस रही है और कृतज्ञता की मुक्ता-माला ही मानो छिन्न होकर मोतियों के रूप में बिखर रही है। वे देर तक पृथ्वी की ओर मुख कर के बैठी रहीं । फिर थोड़ी देर के लिए श्रात्म-विस्मृत-सी मेरी ओर देखती रहीं। जैसे उन्हें मेरी बात पर विश्वास ही नहीं हुआ। हो, जैसे मैं कुमार की बात न कह कर किसी स्वर्गीय देवता की बात कर रहा होऊ और फिर शान्त भाव से ही बोलीं-'शिविका नँगा लो ।। | मेरी बात कुमार ने आग्रहपूर्वक सुनी । कल उनके चेहरे पर जो कूट चतुरता थी, वह आज नहीं थी । कल वे महासन्धिविग्रहिक थे, आज किसी अनजानी बहन के भाई थे । आज उनका कोई भी मनो- विकार दब नहीं रहा था, उनके चटुल मत्स्य के समान चंचल नयनों