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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की आत्मकथा तत्काल ही स्नान कर कसुम्भ-वस्त्र धारण किया था। प्रत्यग्र-स्नान ने उनकी कंकम-गौर कान्ति को निखार दिया था। उनका रुचिर अंशु- कान्त ( अचल ) मन्द-मन्द वायु के आश्लेष से चंचल हो रहा था। वे काठ की नौका में मे सद्यः समुपजात चल-किसलयवती मधु-मालती- लता के समान फुल्ल-कमनीय दिख रही थीं। उनकी खुली हुई कवरी के छितराए हुए सुवर्णाभ केश-कसुम्भ की आभा से ऐसे मनोहर दिखाई दे रहे थे कि उन्हें देख कर सौवर्ण-शिरीष के सुकमार तन्तुओं के घरग-पिंजर-जाल का ध्यान हे आता था । ३ अानन्द से प्रदीप्त दिखाई दे रही थ। भट्टिनी को प्रसन्न देख कर मेरा चित्त नन्द- गद्गद् हो गया। मैं बिना कुछ बोले ही उनकी आज्ञा की प्रतीक्षा में खड़ा हो गया । उन्होंने धीरे-धीरे कहा---जल्दी ही लौटना, भट्ट । मैंने सिर झुका कर कातर भाव से कहा-'शीघ्र ही लौटुंगा । परन्तु मेरी वाणी का वाच्यार्थ जो-कुछ भी क्यों न रहा हो, मेरा हृदय जानता है कि उसकी असली अर्थ क्या था । उसका वास्तविक अर्थ यह था कि 'देवि, अपराध क्षमा हो, भविष्य में ऐसी गलती फिर न होगी । मैं मानो अपने वाक्य की व्यंजना समझ कर ही लजित हो रहा । भट्टिनी ने स्नेह-मेदुर स्वर में कहा---'हाँ ।' फिर लौट गईं। मैं नगर की ओर बढ़ गया । आज फाल्गुन की पूर्णिमा थी । आज कान्यकुब्ज के प्रमच मदनोत्सव का दिन था। मैं भूल ही गया था कि आज नगर में फँसना कितने साहस का काम है। सारा नगरे पुरवासियों की करतल ध्वनि, मधुर संगीत और मृदंग के घोष से पूँज उठा था। मधुमत्त नगर-विलासिनियों के सामने जो भी पुरुष पड़ जाता था, उस पर ऋगक ( पिचकारी ) के रंगीन जल की बौछार हो जाती थी। बड़े-बड़े चौराहे मर्दल के गम्भीर घोष से और चर्चरी-ध्वनि से शन्दायमान हो रहे थे। ढेर के ढेर सुगंधित अबीर दसों दिशाओं