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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की आत्मकथा जो कुछ कहा है, वह कितना गम्भीर सत्य है ! पुरुप का सत्य और है, नारी का सत्य और । मैंने नारी का शरीर पाया है; पर न उसे सफल बना सकी, न सार्थक । क्यों भट्ट, महामाया ने क्या यह भी कुछ बताया है कि नारी-जन्म को सार्थक बनाने का क्या उपाय है ?' मैंने चिन्तित होकर कहा—मुझे महामाया ने कुछ विशेष पूछने का अवसर ही नहीं दिया । पर अवधूत की बात को यदि तुम्हारे प्रश्न के लिए प्रमाण माना जाय, तो मेरा अनुमान है कि उसका उत्तर यह होगा कि प्रवृत्तियों को दबाना भी नहीं चाहिए और उनसे दबना भी नहीं चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति का देवता अलग होता है । देवता का परिचय शायद प्रवृत्तियाँ ही कराती हैं । हम बहुत बार अपने देवता को मन-ही-मन पूजते तो रहते हैं; पर हमें पता भी नहीं होता। मैं सच कहता हूँ, निउनिया, मैं इन बातों को समझ नहीं सका हूँ; परन्तु मन के किसी कोने से बार-बार प्रतिध्वनि हो रही है कि इस बात में सचाई है ।' निपुणिका ने बात ध्यान से सुनी । लगता था कि उस के प्रत्येक अक्षर को वह समझ लेना चाहती है। उसने फिर एक दीर्घ निश्वास लिया । बोली-भट्ट, जल्दो स्नान कर लो, आचार्य- देव तुम्हें कुमार के पास जाने को कह गए हैं। वे कल सन्ध्या को श्राए थे । यह कह कर वह भट्टिनी के पास चली गई। उसने विशेष कुछ कहा भी नहीं और पूछने का अवसर भी नहीं दिया। मेरे मन में आचार्य देव और भट्टिनी के बीच क्या बातें हुई, यह जानने की उत्सुकता थी, पर उपयुक्त अवसर के लिए उसे छोड़ देना ही अच्छा जान पड़ा । | मैं स्नानादि से निवृत्त होकर कुमार कृष्णवर्धन के महल की ओर जाने को प्रस्तुत हो गया । नौका से नीचे उतरा ही था कि श्राहट पाकर पीछे की ओर मुड़ा । देखा, भट्टिनी खड़ी हैं। उनका मुख-मण्डल मेधयुक्त शरश्चन्द्र के समान प्रसन्न-मनोहर जान पड़ता था। उन्होंने