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बाण भट्ट की आत्म-कथा

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बाण भट्ट की आत्मकथा कपिश वर्ण और अस्तव्यस्त चिकुरराशि से श्रच्छन्न होकर भी अभिराम था। अधी-पानी से उद्धत फूले हुए कोविदार-वृक्षों के समान उनका परिधेय वस्त्र श्लथ-कुंचित होकर भी सुन्दर था और कारणघट पर स्थापित जपा पुष्प के समान उनका सिन्दूर-तिलक छिन्न-भिन्न होकर भी पवित्र था। उनकी आज्ञा से मैं उठ बैठा। बड़े स्नेह और अादर के साथ उन्होंने प्रसाद दिया। प्रसाद में मधु, अदरख, भुना हुआ। कन्द तथा अपराजिता-पुष्प के कुछ दल थे। मैंने भक्तिपूर्वक उस प्रसाद को ग्रहण किया। माहामाया भैरवीं मेरी ओर जिज्ञासाभरी दृष्टि से देखती रहीं । मैंने अपने चारों ओर एक बार ध्यान से देखा । महामाया के अतिरिक्त वहाँ और कोई नहीं था, यहाँ तक कि कारण-पात्र और करवीर-पुष्प का एक छोटा दल भी वहाँ नहीं था। मैंने विनीत भाव से पूछा-'मातः, श्रार्य अघोर भैरव कहाँ गए हैं और वे दोनों साधक कहाँ चले गए ? महामाया ने संक्षेप में उत्तर दिया---'सब लोग अपने-अपने आश्रमों में चले गए। मैं भी जाऊँगी । बाबा की आज्ञा थी कि तुम्हें प्रसाद दे लें, इसीलिए अब तक रुकी हुई थी। ‘वे लोग अब इधर नहीं आयेंगे क्या है ‘कातिक की अमावस्या से पहले नहीं । बाबा भी नहीं है। ‘बाबा सिद्ध अवधूत हैं, उनको कुछ ठीक-ठिकाना नहीं है । श्रा भी सकते हैं, नहीं भी आ सकते हैं । उनका प्रसाद पाना तुम्हारे परम पुण्यों का परिणाम है । ‘एक बात पूछू, माता १? पूछो ।' ‘बाबा ने कल मुझसे जो-कुछ कहा, उसका क्या अभिप्राय है ? ‘बाबा से अधिक मैं क्या बता सकती हैं।