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बाण भट्ट की आत्म-कथा

मणि भट्ट की आत्म-कथा । ६३ भैरवी मुझे टूटी दीर्घिका के (तालाब के) घाट पर ले गई। वहाँ पहले से ही तीन व्यक्ति उपस्थित थे। दो तो कोई साधक भैरव और भैरवी थे ; पर एक महात्मा उनमें विशेष थे । वे व्याघ्र-चर्म पर अर्द्धशायित अबस्था में लेटे हुए थे। उनके शरीर में एक प्रकार का तेज निकल रहा था । सिर पर केश नहीं के समान थे ; पर कान की शकुलियाँ श्वेत केशों से आच्छादित थीं । ललाट-मण्डल की सहज बलियाँ कुर्च-प्रदेश तक व्याप्त हो गई थीं । आँखों के ऊपर की दोनों 9 लताएँ मिल गई थीं और सार मुलु-मण्डल छोटे-छोटे श्मश्च लोम से परिव्याप्त था। उनकी आँखें बहुत ही आकर्षक थीं। उन्हें देखकर बड़ी-बड़ी समद्री कौड़ियों का भ्रम होता था । ऐसा जाने पड़ता था कि वे अखें पूरी-पूरी कभी खुली ही नहीं थीं । सदा आधी ही खुलती रहने के कारण उनके नीचे मांस-खाड़ फूल उठे थे और कोनों में एक प्रकार की स्थायी सि कुक आ गई थी। उनके वेश में कोई विशेष साम्प्रदायिक चिह्न नहीं था, केवल दाहिनी ओर रखा हुआ पान-पात्र देखकर अनुमान होता था कि वे कोई वाममार्गी अवधूत होंगे । उनके पहनावे में एक छोटा-सा वस्त्रखएड था, जो लाल नहीं था और तन ढंकने के लिने पर्याप्त तो किसी प्रकार नहीं था। उनकी तोंद कुछ यादा निकली दिखती थी, यद्यपि वह उतनी अधिक निकली हुई थी नहीं। भैरवी ने उनके पास आकर कहा---बाबा, यह देखो, यह व्यक्ति साधना-गृह को भ्रष्ट कर आया हूँ ।' बाबा की अखि मुदी हुई थीं । भैरवी की वाणी सुनकर थे ज़रा सचेत हुए और उन्होंने अपनी आधी खुली आँखों से क्षण-भर के लिए मेरी ओर ताका। वह दृष्टि बहुत ही पवित्र जान पड़ी ! बाबा ने फिर अखें बन्द कर लीं। थोड़ी देर तक उसी अवस्था में रहने के बाद बोले-‘मायाविनी ! मायाविनी ! मायाविनी !!! मुझे ऐसा लगा, मानो वे प्रत्यक्षरूप से सब- कुछ देख रहे हैं, जैसे त्रिकाल उनके हाथ में आमलक फल के समान