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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की श्रारम-कथा ६१ गया, जैसे बिजली मार गई हो । सामने एक गाढ़ गैरिक वस्त्रधारिणी स्त्री थी । उसके एक हाथ में त्रिशूल था और दूसरे में काला-सा कोई पात्र | खुले हुए पिंगल-वर्ण के केश गुल्फों तक लटके ऐसे लग रहे थे, मानो सायंकालीन अरुण मेध-मण्डल में विद्युत् की शिखाएँ अचंचल होकर रुक गई हों । उसका सुनहरा मुख-मण्डल गैरिके वस्त्रों से इस प्रकार कुण्डलित था, मानो धातुमयी अधित्यका में झारग्वध के झाड़ फूले हुए हों। उसकी आँखें विकच कांचनार-कुसुम के समान लाल- लाल और फटी हुई थी और उनसे एक मन्द-मन्द रश्मि-सी निकले रही थी। उसकी मूर्ति मनोहर नहीं; पर वह भयंकर भी नहीं थी । यदि कड़क कर उसने पहले ही मुझे डाँट न दिया होता, तो निस्सन्देह मैं उसे साक्षाद्विग्रहधारिणी चण्डिका ही समझता। उसने भी मुझे वहाँ देख कर आश्चर्य का ही भाव दिखाया । फिर एक क्षण में ही उसके अधरोउ काँपने लगे । छितराई हुई अखें और भी छितरा गई । नासाग्र में एक प्रकार की हलचल हुई और भ्रलताएँ विकुचित हो उठीं। उसके ललाट की बलियाँ स्पष्ट ही दिख पड़ीं । उसने कड़क कर पूछा---'इस साधना-गृह में चोर की भाँति घुसने वाला तू कौन है ?? मैंने अभी तक अपने को सँभाला नहीं था। क्या कहना चाहिए, क्या नहीं कहना चाहिए, कुछ स्थिर न कर पाया था । केवल पथराई आँखों से उसे देखता रहा । वेश देख कर मैंने अनुमान किया कि वह कोई भैरवी होगी। फिर मुझे इस प्रांगण-गृह के भीतर के विचित्र चिह की बात याद आई । मुझे ऐसा लगा कि क्षण-भर पूर्व मेरा मन जिस दुनिमित्त की आशंका कर रहा था, वह सिर पर सवार है । इस समय भट्टिनी यहाँ से चली गई हैं, यह सोच कर मेरे मन में अपार सन्तोष हुा । मैं अपने को सम्हालने में समर्थ हो गया। हाथ जोड़ कर बोला---'परदेशी हूँ मातः, अपराध क्षमा हो ।' भैरवी ने एक बार मुझे नीचे से ऊपर तक ध्यान से देखा।