बगुला के पंख ८६ 'तो हलवाई की खसलत रखते हो। हर वक्त भट्टी के पास बने रहना चाहते हो, ताकि बनती हुई मिठाइयों को ललचाई नज़र से देखते रहो । चाशनी चखते रहो । लेकिन याद रखो, मैं तुम्हें हलवाई न रहने दूंगा।' 'तुम क्या चाहते हो ?' 'मैं तुम्हें वह रईस बनाना चाहता हूं जिसके शौक और मज़े के लिए हलवाई मिठाइयां बनाता है। 'लेकिन मैं उनसे अलहदा नहीं रहना चाहता।' 'यानी बिना जूतम-पैजार वहां से निकलोगे नहीं ?' 'जूतम-पैजार कैसी ?' 'अजब नादान आदमी हो ! अमा, उस औरत पर तुम्हारी नज़र है, तुम उसे चाहते हो।' 'वह भी मुझे चाहती है।' 'और उसका खाविन्द भी दोनों की चाह को चाहता है ?' 'उसे भला ये सब बातें मालूम कहां ?' 'और यदि कभी मालूम हो गईं ?' 'तो बेढब बनेगी।' 'बस, यही तो बात है। इसीलिए कहता हूं कि आज़ाद बनकर रहो, फिर औरत तुम्हारी है । ज़रा सुलगने दो उसे ।' 'मुझसे भला रहा जाएगा ?' 'दोस्तमन, यह ज़िन्दगी एक दरिया है, जो घूम-घुमौवल रास्तों में टेढ़ा- मेढ़ा, बल खाता, हरे-भरे मैदानों और साएदार दरख्तों में होकर बहता हुआ कहीं सिकुड़ता, कहीं फैलता, जैसी राह मिले वैसा ही रूप धारण करता हुआ आखिरकार समन्दर में जा मिलता है । क्यों ? जानते हो ?' 'तुम्हीं बतायो।' 'इसलिए कि ज़िन्दगी जो लोगों के हिस्से में आती है, उसमें वे कुछ कमी महसूस करते हैं । ख्वाहिशें दिलों में उछलती रहती हैं और रगों में लोहू उबलता रहता है, पस्त हौसले के आदमी तो इसीमें झुलसकर खत्म हो जाते हैं । लेकिन जिनके खून में हौसले होते हैं, उन्हें बेफिक्री की आरामदेह ज़िन्दगी फीकी और मुर्दार-सी लगती है। वे ज़िन्दगी को कस्दन ज्यादा से ज्यादा खतरनाक और
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