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बगुला के पंख
 

पायजामा, किश्तीनुमा टोपी । मेम साहब उसे 'मुंशी' कहकर पुकारती थीं। मुंशी कहने से वह खुश होता था। उसका नाम जुगनू था। पर वह अपना परिचय मुंशी जगनप्रसाद कहकर देता था। जब उसने मुस्लिम धर्म अंगीकार कर लिया तो मुंशी मुश्ताक अहमद बन गया। तनख्वाह भी उसे अच्छी मिलने लगी थी । मेम साहब की कृपादृष्टि ने उसे और भी अनेक सुविधाएं दे दी थीं। मुसलमान होने के बाद उसका सम्बन्ध अपने घरवालों से छूट गया था और अब वह इस बात को लगभग भूल ही चुका था कि वह जन्मजात भंगी है। साहब के बैरा-चपरासी, जो अधिकतर ईसाई-गोवानी थे, किसी तरह उसकी जाति के सम्बन्ध में जान गए थे । वे उससे घृणा करते और उसे तुच्छ समझते थे। अब मुंशी मुश्ताक अहमद का तो दौरदौरा ही और था। अव वे बैराओं- खानसामानों, चपरासियों को क्या गिनते थे ! वह उनकी तनख्वाहें बांटते, मेम साहब का हिसाब-किताब रखते, एकान्त में मेम साहब की सेवा करते । यह बात वे सब जान गए थे और ऊपरी मन से उसकी आवभगत करते थे । मेम साहब तो चाहती थीं कि वे उसे विलायत ले जाएं, उन्होंने यह बात उससे कह भी दी थी। परन्तु दुर्भाग्य से अकस्मात् ही प्रसव-वेदना में मेम साहब का देहान्त हो गया और उनके मरने पर साहब ने मुंशी को बर्खास्त कर दिया । मुंशी खिन्न मन' कुछ दिन बम्बई की गलियों की खाक छानता फिरा। पर कहीं उसकी नौकरी न लगी। छोटी-मोटी खानसामागिरी की नौकरी अब उसे जंचती न थी। मेम साहब से वह एक अच्छा-सा सर्टिफिकेट भी नहीं ले सका था। जब उसकी जेब में पाई भी न रह गई, और यार-दोस्तों से वह इतना कर्ज़ ले चुका कि सब उससे कतराने लगे तो उसने बम्बई छोड़ दी। बिना टिकट सफर करके वह अपने घर आ गया। परन्तु अब उसके मिज़ाज और आदतें बदल चुकी थीं। भंगी का घर और वहां का वातावरण जिसमें गन्दगी, दारिद्रय, मानसिक दासता, अन्धविश्वास, कलह और रूढ़िवाद का बोलबाला था, अब उसके लिए सर्वथा अपरिचित हो गया था। वहां दो-चार दिन' रहना भी उसके लिए दूभर हो गया। उसकी सगी मां मर चुकी थी और उसका बाप इस बुढ़ापे में एक जवान मेहतरानी चार सौ रुपये में खरीद लाया था, जिससे उस बूढ़े की अब नित्य जूतम-पैजार होती रहती थी। उसकी एक बहन अपने आदमी को छोड़- कर उसी गांव में दूसरे घर बैठ गई थी, दूसरी उसी घर में अपने चार बच्चों