बगुला के पंख ८१ 'मुबारकबादी का खत मैंने लिखा था, मिल गया होगा।' 'मिल गया। लेकिन वह काफी नहीं है। कल बजट की स्पीच है। मैंने तो कभी स्पीच दी नहीं। फिर बजट किस चिड़िया का नाम है, यह भी मैं नहीं जानता । अब ऐसी तरकीब बताओ कि मेरी धाक बंध जाए। भरम ढका रहे। स्पीच ऐसी गज़ब की हो कि दिल्ली फड़क उठे ।' 'तो दोस्त, नवाब को उस्ताद मानते हो न ?' 'मेरी स्पीच बन गई तो मान लूंगा।' 'खैर, तो कल सुबह कहां मिलोगे ?' 'सुबह मुझे फुर्सत नहीं मिलेगी।' 'दोपहर को ?' 'उससे क्या होगा ? शाम को तो स्पीच है।' 'मैं ज्यादा टाइम नहीं लूंगा । सिर्फ पन्द्रह मिनट काफी हैं।' 'पन्द्रह मिनट में क्या होगा ?' 'बस, जादू की पुड़िया दे दूंगा । काम फतह ।' 'अच्छी बात है, तो कहां?' 'जहां तुम कहो।' 'मेरे आफिस । धड़ल्ले से चले आना । चपरासी से कहना नवाब हूं। वह मेरे पास पहुंचा देगा।' 'बहुत अच्छा हुजूरेवाला । अब तो आपको सलाम करना पड़ेगा।' 'फिर यह क्या बात कही । दोस्ती की बात भूल गए ?' 'नहीं, भूला नहीं । मैंने सोचा शायद तुम भूल न गए हो। लोग जब बड़ी कुर्सी पर बैठ जाते हैं तो दोस्तों को भूल जाते हैं।' 'वे कमज़र्फ होते होंगे । जगन ऐसा नहीं है।' 'तो दोस्त, मैं जादू की पुड़िया लेकर दोपहर को हाज़िर होऊंगा।' 'अच्छी बात है, अब मैं चला । तुम अपना धन्धा करो।' यह कहकर जुगनू चल दिया।
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